
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (HSA) की उस धारा पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की है, जिसमें कहा गया है कि निःसंतान हिंदू विधवा की मृत्यु के बाद उसकी संपत्ति उसके ससुराल वालों को मिलती है, न कि उसके मायके के लोगों को।
न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना ने कहा कि हिंदू विवाह में जब कोई महिला शादी करती है, तो उसका गोत्र बदल जाता है, और यह परंपरा हजारों वर्षों से चली आ रही है। उन्होंने स्पष्ट किया कि ‘कन्यादान’ की परंपरा के अंतर्गत, महिला अपने पति और उसके परिवार की जिम्मेदारी में आ जाती है।
क्या है मामला?
यह मामला एक निःसंतान हिंदू विधवा की संपत्ति से जुड़ा है, जो बिना वसीयत के गुजर जाती है। वर्तमान कानून के अनुसार, ऐसी स्थिति में उसकी संपत्ति उसके मायके के बजाय ससुराल वालों को ही मिलती है। कोर्ट में कई याचिकाओं के माध्यम से यह सवाल उठाया गया कि क्या यह प्रावधान न्यायसंगत है।
एक मामले में, कोविड-19 के कारण एक युवा दंपति की मृत्यु हो गई, जिसके बाद पुरुष की मां और महिला की मां के बीच संपत्ति को लेकर विवाद शुरू हो गया। पुरुष की मां का दावा है कि उसे पूरी संपत्ति मिलनी चाहिए, जबकि महिला की मां अपनी बेटी की संपत्ति पर हक जताती हैं।
न्यायमूर्ति नागरत्ना और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की बेंच ने याचिकाकर्ता के वकील से तीखे सवाल किए। न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा कि हिंदू विवाह में ‘कन्यादान’ और ‘गोत्र-दान’ की परंपरा के तहत, महिला अपने पति और उसके परिवार की जिम्मेदारी में आती है।
उन्होंने यह भी कहा कि एक विवाहित महिला अपने भाई के खिलाफ भरण-पोषण का दावा नहीं करती। विशेष रूप से दक्षिण भारत में, विवाह के रीति-रिवाजों में यह साफ किया जाता है कि महिला एक गोत्र से दूसरे गोत्र में चली जाती है।
मौजूदा कानून (HSA की धारा 15(1)(b)) के अनुसार, यदि कोई निःसंतान विधवा अपनी मौत से पहले दोबारा शादी नहीं करती है और वसीयत नहीं बनाती है, तो उसकी संपत्ति उसके पति के वारिसों को मिलती है, न कि उसके मायके के लोगों को।
सुप्रीम कोर्ट ने इस विवादित प्रावधान की वैधता पर सुनवाई को स्थगित कर दिया है, और मामले को मध्यस्थता के लिए भेजते हुए, इस पर नवंबर तक पुनः सुनवाई करेगा।
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