
नई दिल्ली । चैटजीपीटी जैसे टूल्स ने हमारे सोचने और सीखने के तरीके को पूरी तरह बदल दिया है। पहले हम गूगल पर जाकर अलग-अलग स्रोतों से जानकारी इकट्ठा करते थे, सोचते थे, तुलना करते थे और निष्कर्ष निकालते थे। अब चैटजीपीटी हमें चुटकियों में पोलिस्ड जवाब दे देता है। हालांकि ये जवाब हमेशा सही नहीं होते, लेकिन इतने सहज और सटीक लगते हैं कि लोग इन्हें ही अंतिम सत्य मान लेते हैं। नतीजा ये है कि लोग जटिल सवालों पर गहराई से विचार करने की बजाय शॉर्टकट से काम चला रहे हैं। एआई के अधिक इस्तेमाल से डनिंग-क्रूगर प्रभाव भी बढ़ता है, जहां कम जानकारी वाले लोग खुद को अधिक जानकार समझने लगते हैं।

कई बार लोग चैटजीपीटी के जवाबों को बिना जांचे ही सच मान लेते हैं और खुद को विशेषज्ञ समझ बैठते हैं। इससे असल समझ कमजोर पड़ जाती है। वहीं, कुछ लोग ऐसे भी हैं जो एआई का उपयोग सोच को निखारने और नई जानकारियों को समझने के लिए करते हैं। वे सवाल करते हैं, तुलना करते हैं और आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाते हैं। इसलिए सवाल ये नहीं है कि हम चैटजीपीटी जैसे टूल्स का इस्तेमाल कर रहे हैं या नहीं, बल्कि ये है कि हम इनका उपयोग किस नजरिए से कर रहे हैं क्या हम इन पर पूरी तरह निर्भर हो रहे हैं या इन्हें अपनी सोच को धार देने का साधन बना रहे हैं।

जवाब में ही हमारे भविष्य की दिशा छिपी है। बता दें कि पिछले कुछ सालों में टेक्नोलॉजी ने हमारी जिंदगी को पूरी तरह बदल दिया है। 2008 में जब एक मैगजीन ने यह सवाल उठाया था कि “क्या गूगल हमें बेवकूफ बना रहा है?”, तब यह चर्चा शुरू हुई थी कि क्या इंटरनेट हमारी सोचने की क्षमता को कमजोर कर रहा है। अब करीब 17 साल बाद यह बहस और गहरी हो गई है, क्योंकि हमारे सामने एक नई क्रांतिकारी तकनीक आ चुकी है—जेनरेटिव एआई, जैसे चैटजीपीटी। यह तकनीक अब सिर्फ जानकारी नहीं देती, बल्कि उसे बना भी सकती है, उसका विश्लेषण कर सकती है और उसका सार भी तैयार कर सकती है।