‘यह वासना नहीं प्यार है…’ सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत आरोपी को किया रिहा

Supreme Court : सुप्रीम कोर्ट ने अपने असाधारण अधिकारों का प्रयोग कर एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है, जिसमें उसने एक दोषी व्यक्ति की दोषसिद्धि और सजा को रद्द कर दिया है। यह फैसला विशेष परिस्थितियों में न्याय और करुणा का संतुलन स्थापित करने का प्रयास है।

कोर्ट ने यह फैसला उस मामले में लिया है, जिसमें आरोपी व्यक्ति को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 366 और यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम (POCSO Act) की धारा 6 के तहत दोषी पाया गया था। लेकिन, पीड़िता, जो अब उसकी पत्नी हैं, ने अपने नवजात शिशु के साथ उसके साथ शांतिपूर्वक रहने की इच्छा व्यक्त की थी।

जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ऑगस्टाइन जॉर्ज मसीह की खंडपीठ ने इस मामले में अपनी असाधारण शक्तियों का प्रयोग करते हुए कहा कि, यद्यपि अपराध गंभीर है, फिर भी इस विशिष्ट परिस्थिति में “व्यावहारिकता और सहानुभूति के संयोजन वाले एक संतुलित दृष्टिकोण” की आवश्यकता है। अदालत ने इस फैसले में अपीलकर्ता पर यह भी शर्त लगाई कि वह अपनी पत्नी और बच्चे को जीवनभर नहीं छोड़ेगा और उनका सम्मानपूर्वक पालन-पोषण करेगा। यदि यह शर्त का उल्लंघन हुआ, तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं।

यह फैसला इस बात को रेखांकित करता है कि कानून का अंतिम उद्देश्य समाज का कल्याण है। जस्टिस बेंजामिन कार्डोज़ो के उद्धरण को आधार बनाते हुए कोर्ट ने कहा कि “कानून का अंतिम उद्देश्य समाज का कल्याण है।” साथ ही, न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि अपराध चाहे कितना भी गंभीर क्यों न हो, न्याय प्रक्रिया में करुणा और व्यावहारिकता का भी ध्यान रखना आवश्यक है।

कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि इस मामले में अपराध वासना का नहीं, बल्कि प्रेम का परिणाम है। कोर्ट ने यह भी कहा कि इस अपराध पर कानूनी कार्रवाई और कारावास की अवधि से इस परिवार में केवल विघ्न और विघटन ही आएगा। पीड़िता ने अपने हलफनामे में कहा है कि वह अपने पति के साथ शांतिपूर्ण और स्थिर जीवन बिताना चाहती है। इस बात को ध्यान में रखते हुए, कोर्ट ने कहा कि इस पारिवारिक इकाई को तोड़ना उचित नहीं होगा।

अदालत ने यह भी चेतावनी दी कि यह आदेश विशिष्ट परिस्थितियों के आधार पर दिया गया है और इसे किसी अन्य मामले के लिए मिसाल नहीं माना जाएगा। उस फैसले के तहत, आरोपी को अपराध से मुक्त कर दिया गया है, बशर्ते कि वह अपने परिवार के साथ जीवन भर सम्मानपूर्वक रहेंगे।

यह फैसला यह दर्शाता है कि सुप्रीम कोर्ट अपने असाधारण अधिकारों का प्रयोग कर न्याय के नए मानदंड स्थापित कर सकता है, जब समाज और व्यक्तिगत जीवन का हित जुड़ जाता है। साथ ही, यह भी स्पष्ट है कि कानून का उद्देश्य केवल सजा देना नहीं, बल्कि समाज के हित में न्याय करना है।

वहीं, सुप्रीम कोर्ट इस बात पर विचार कर रहा है कि क्या POCSO Act के तहत सहमति की उम्र को घटाकर 16 वर्ष किया जाए, ताकि किशोरों के बीच सहमति से बने प्रेम संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर रखा जा सके। इस तरह के विचाराधीन मामलों में न्यायालय यह देख रहा है कि कैसे कानून को समाज की बदलती वास्तविकताओं के अनुरूप बनाया जाए।

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