आग की लपटों में वन्य जीव और प्राणियों का समाप्त होता संसार

चंपावत। गर्मियों में ठंडी हवा के स्थान पर गर्म हवाएं चल रही हैं। पूरे वातावरण में धुएं ने अपना साम्राज्य कायम कर यहां आने वाले पर्यटकों की राह ही नहीं रोकी है बल्कि उम्रदराज लोगों को सांस लेने में दिक्कतें तथा आंखों में जलन एक आम समस्या हो गई है। जंगली आग में काबू पाने के उपाय केवल फाइलों में सिमट कर रह गए, जबकि राज्य बनने के 24 साल बीत चुके हैं।

पहले लोग जंगल की आग को बचाने के लिए दौड़ कर जाया करते थे। जंगलों से अपनत्व का भाव होता था। नई पीढ़ी का जंगलों से रिश्ता क्यों टूटा? इसकी वजह क्या है? इस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। पहले जब हर गोठ में गाय-भैंस बंधी रहती थी, तब लोग आग लगाना तो दूर बुझाने के लिए दौड़ कर जाया करते थे। आज पलायन के चलते गांव की आबादी व पशु सिमटते जा रहे हैं।

ऐसी स्थिति में ऐसा कौन निर्दय होगा? जो जंगलों को आग के हवाले कर रहा होगा। प्रतिवर्ष जंगलों को आग से बचाने की चिंता का समय अप्रैल से शुरू होता है और मानसून आते ही वह धुल जाता है। सरकार एवं वन विभाग ने कभी भी इस मुद्दे को संवेदनशीलता से नहीं देखा। राजनीतिक दलों के एजेंडे में तो यह बात कभी रही ही नहीं, किंतु उत्तराखंड बनने के बाद हर मिजाज की सरकारें रही, किंतु किसी ने वन विभाग से यह नहीं पूछा कि इस वैज्ञानिक युग में भी जंगलों को आग से बचाने के सार्थक प्रयास क्यों नहीं किए जा रहे हैं?

इनसेट- जंगल कैसे बचा बचाया जाता है?, मायावती वन पंचायत को देखो
लोहाघाट। आज जब पूरे उत्तराखंड के जंगल धू-धू कर जल रहे हैं किंतु मायावती वन पंचायत के सघन वनों में वन्य जीव अन्य स्थानों से आकर यहां शरण लेते आ रहे हैं। वन पंचायत मायावती का जिन भावनाओं से आश्रम के संत प्रबंध कर रहे हैं, यदि इसी भावना से अन्य लोग प्रेरित हों तो जंगलों को हर दृष्टि से बचाया जा सकता है। आश्रम के अध्यक्ष स्वामी शुद्धिदानंद जी महाराज कहते हैं कि यहां हमारा तो प्रकृति के बीच ऐसा रिश्ता बना हुआ है, जहां लालच के लिए कोई स्थान नहीं है।

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