
सुप्रीम कोर्ट ने जमानत मिलने के बावजूद आरोपी को समय पर रिहा न करने पर उत्तर प्रदेश जेल प्रशासन को कड़ी फटकार लगाई है। कोर्ट ने इसे नागरिक अधिकारों का सीधा उल्लंघन माना और कहा कि ऐसी लापरवाही संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ के अधिकार का उल्लंघन है। अदालत ने आरोपी को पांच लाख रुपये बतौर हर्जाना देने का निर्देश दिया है।
सुप्रीम कोर्ट की सख्ती
जस्टिस केवी विश्वनाथन और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने इस मामले को बेहद गंभीर मानते हुए टिप्पणी की,
“आजादी एक अनमोल अधिकार है, जिसकी गारंटी हमारा संविधान देता है। अफसरों को इसकी संवेदनशीलता समझनी होगी।”
कोर्ट ने यह टिप्पणी तब की जब आरोपी की रिहाई 29 अप्रैल को जमानत आदेश के बावजूद 24 जून को हुई।
अफसरों की लापरवाही पर सवाल
कोर्ट की नाराजगी तब और बढ़ी जब पता चला कि धर्मांतरण विरोधी कानून की एक उपधारा का हवाला देते हुए आरोपी को इसलिए रिहा नहीं किया गया, क्योंकि जमानत आदेश में उस उपधारा का उल्लेख नहीं था।
इस पर सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश जेल प्रशासन के निदेशक को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से तलब किया और पूछा —
“आपके अधिकारी संविधान की मूल भावना को लेकर कितने संवेदनशील हैं?”
जांच के आदेश
सरकार की ओर से पेश वकील ने बताया कि आरोपी को मंगलवार को रिहा कर दिया गया है और देरी की जांच चल रही है। इस पर कोर्ट ने निर्देश दिया कि गाजियाबाद के जिला एवं सत्र न्यायाधीश इस मामले की जांच कर रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में पेश करें।
क्या है मामला?
आरोपी पर उत्तर प्रदेश के धर्मांतरण विरोधी कानून के तहत केस दर्ज किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने उसे 29 अप्रैल को जमानत दी थी, लेकिन तकनीकी कारणों और अफसरों की लापरवाही के चलते उसे करीब दो महीने बाद रिहा किया गया।