त्योहारों की मिठास में जहर: दिल्ली-एनसीआर में मिलावटखोरी का बोलबाला, खाद्य सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल

New Delhi : त्योहारी मौसम की चमक-दमक के बीच दिल्ली-एनसीआर के बाजार मिठाइयों, दूध उत्पादों और मसालों से भरे पड़े हैं, लेकिन इस मिठास के पीछे एक कड़वा सच छिपा हैमिलावटखोरी। भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) के नियमों के बावजूद, इस क्षेत्र में खाद्य पदार्थों में मिलावट की समस्या बेकाबू हो चुकी है। जांच प्रक्रिया में ढिलाई, कड़ी सजा का अभाव और प्रशासनिक लापरवाही ने मिलावटखोरों को खुली छूट दे दी है, जिससे उपभोक्ताओं की सेहत खतरे में पड़ रही है।

खाद्य सुरक्षा व्यवस्था की नाकामी: सजा का अभाव, जुर्माना मात्र औपचारिकता

दिल्ली-एनसीआर में खाद्य सुरक्षा व्यवस्था की नाकामी तब स्पष्ट होती है, जब मिलावट के मामलों में सजा का कोई उदाहरण सामने नहीं आता। बीते तीन वर्षों में इस क्षेत्र में खाद्य पदार्थों में मिलावट के लिए एक भी व्यक्ति को जेल की सजा नहीं हुई। अधिकांश मामलों में दोषियों पर मामूली जुर्माना लगाकर या चेतावनी देकर छोड़ दिया जाता है। एफएसएसएआई के आंकड़ों के अनुसार, 2022-23 में 24.13 लाख रुपये, 2024-25 में 61.05 लाख रुपये और 2025-26 में 46.26 लाख रुपये का जुर्माना वसूला गया, लेकिन यह राशि मिलावटखोरों को रोकने में नाकافی साबित हुई है।

दिल्ली के खाद्य सुरक्षा आयुक्त जितेंद्र कुमार जैन बताते हैं कि खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत नमूनों की जांच रिपोर्ट 14 दिन में आती है। यदि नमूना फेल होता है, तो दुकानदार को अपने खर्च पर शेष तीन नमूनों में से एक को दूसरी प्रयोगशाला में जांच के लिए भेजने का मौका दिया जाता है। दूसरी रिपोर्ट, जो 14 दिन बाद आती है, को अंतिम माना जाता है। यह लंबी प्रक्रिया और संसाधनों की कमी मिलावटखोरों को बच निकलने का अवसर देती है। विशेषज्ञों का मानना है कि जांच प्रक्रिया में देरी और कड़े दंड की कमी ही इस समस्या की जड़ है।

मिलावट का जाल: दूध, मसाले और तेल सबसे ज्यादा निशाने पर

त्योहारी सीजन में दूध, मावा, पनीर, घी और मिठाइयों की मांग चरम पर होती है, जिसका फायदा उठाकर मिलावटखोर लागत कम करने और मुनाफा बढ़ाने के लिए खतरनाक पदार्थों का इस्तेमाल करते हैं। आम मिलावट में शामिल हैं:

  • दूध और दूग्ध उत्पाद: पानी, सिंथेटिक दूध, यूरिया, स्टार्च, कास्टिक सोडा और घटिया तेल। ये पदार्थ न केवल गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं, बल्कि गुर्दे की बीमारियों और पाचन संबंधी समस्याओं का कारण बनते हैं।
  • मसाले (मिर्च, जीरा, हल्दी): ईंट का चूरा, रेत, चाक पाउडर और रंगीन रेशे। ये रंग और वजन बढ़ाने के लिए मिलाए जाते हैं, जो उपभोक्ताओं को धोखा देने के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं।
  • खाद्य तेल (विशेषकर सरसों का तेल): खनिज तेल या जहरीला आर्जीमोन तेल। ये सस्ते विकल्प गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं जैसे ड्रॉप्सी (शोथ) और अंगों को नुकसान पहुंचा सकते हैं।
  • कृत्रिम रंग: मिठाइयों और पेय पदार्थों में प्रतिबंधित और हानिकारक रासायनिक रंग। ये आकर्षक दिखाने के लिए मिलाए जाते हैं, लेकिन एलर्जी, विषाक्तता और कैंसर जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ाते हैं।

आंकड़े इस समस्या की गंभीरता को उजागर करते हैं। वर्ष 2025-26 में 2,694 नमूने लिए गए, जिनमें गाजियाबाद में 1,298 में से 518 और गौतम बुद्ध नगर में 495 में से 215 नमूने फेल हुए। गुरुग्राम (205 में से 15) और फरीदाबाद (95 में से 12) में भी नमूने असुरक्षित पाए गए।

मावे का रहस्य: कहां से आता है इतना खोया?

त्योहारी मौसम में बाजारों में मावे और खोये से बनी मिठाइयों की बाढ़ देखकर एक सवाल मन में उठता है: इतनी बड़ी मात्रा में मावा आता कहां से है? मावा, जो दूध से बनता है और जिसकी शेल्फ लाइफ अधिकतम एक सप्ताह (श्रेष्ठ गुणवत्ता केवल 2-3 दिन) होती है, अचानक इतनी मात्रा में कैसे उपलब्ध हो जाता है? विशेषज्ञों का मानना है कि मावे में रासायनिक संरक्षक या सिंथेटिक पदार्थ मिलाए जाते हैं, जो इसे खराब होने से बचाते हैं। यह मिलावट न केवल मिठाइयों की गुणवत्ता को प्रभावित करती है, बल्कि उपभोक्ताओं की सेहत के साथ खिलवाड़ करती है।

जांच प्रक्रिया की ढिलाई इस समस्या को और बढ़ाती है। जब तक नमूने एकत्र किए जाते हैं और उनकी रिपोर्ट आती है—जो अक्सर त्योहार खत्म होने के एक महीने बाद होती है—तब तक मिलावटी मिठाइयां उपभोक्ताओं के घरों तक पहुंच चुकी होती हैं। यह देरी खाद्य सुरक्षा व्यवस्था की प्रभावशीलता पर सवाल उठाती है।

प्रशासनिक प्रयास: नाक और मौसमी

मिलावटखोरी पर लगाम कसने के लिए दिल्ली खाद्य सुरक्षा विभाग ने 11 जिलों में 11 टीमें तैनात की हैं, जो दुकानों, होटलों, ढाबों और रेस्तरांओं से नमूने एकत्र कर रही हैं। जनसंख्या घनत्व के आधार पर गठित ये टीमें पुलिस की क्राइम ब्रांच के साथ मिलकर छापेमारी भी कर रही हैं। हालांकि, गाजियाबाद के पूर्व जिलाधिकारी अजय शंकर पांडेय का कहना है कि केवल त्योहारी मौसम में सक्रियता पर्याप्त नहीं है। “प्रशासनिक अमले को सालभर सजग रहना होगा। नियमित अभियान, सख्त कार्रवाई और पर्याप्त संसाधनों के बिना मिलावटखोरी पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता,” वे कहते हैं।

पांडेय ने स्टाफ की कमी, पुरानी प्रयोगशालाओं और जटिल कानूनी प्रक्रियाओं को प्रमुख समस्याएं बताया। उन्होंने सुझाव दिया कि खाद्य व्यवसायियों के लिए हर छह महीने में अनिवार्य लैब टेस्टिंग, उपभोक्ताओं के लिए बुनियादी जांच किट, और ब्रांडेड उत्पादों की नियमित जांच जैसे कदम उठाए जाएं।

जनता की नाराजगी और सुधार की मांग

एक हालिया सर्वेक्षण में 97% लोगों ने माना कि खाद्य सुरक्षा विभाग की अक्षमता ही मिलावटखोरी की मुख्य वजह है, जबकि 82% ने नियम-कानूनों में आमूलचूल बदलाव की मांग की। खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम, 2006 को जटिल और नरम माना जा रहा है। विशेषज्ञों का सुझाव है कि इसमें संशोधन कर कठोर सजा, जैसे बार-बार अपराध करने वालों के लिए अनिवार्य कारावास, और तेज जांच प्रक्रिया को शामिल किया जाए।

समाधान के रास्ते: एक ठोस रणनीति की जरूरत

दिल्ली-एनसीआर में मिलावटखोरी से निपटने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:

  1. प्रशासनिक ढांचे को मजबूत करना: खाद्य सुरक्षा अधिकारियों की संख्या बढ़ाएं और उन्हें नियमित निरीक्षण के लिए संसाधन उपलब्ध कराएं।
  2. आधुनिक प्रयोगशालाएं: नई तकनीकों से लैस प्रयोगशालाएं स्थापित करें ताकि नमूनों की जांच में देरी न हो।
  3. उपभोक्ता सशक्तिकरण: खाद्य दुकानों पर बुनियादी जांच किट उपलब्ध कराएं और उपभोक्ताओं को मिलावट की शिकायत के लिए हेल्पलाइन नंबरों के बारे में जागरूक करें।
  4. कठोर कानून और दंड: खाद्य सुरक्षा अधिनियम में संशोधन कर मिलावटखोरों के लिए कड़ी सजा और भारी जुर्माना लागू करें।
  5. निरंतर निगरानी: त्योहारी मौसम तक सीमित रहने के बजाय सालभर नियमित अभियान चलाएं और ब्रांडेड उत्पादों की भी जांच करें।
  6. जागरूकता अभियान: जनता को मिलावट की पहचान और शिकायत दर्ज करने के लिए शिक्षित करें, ताकि वे स्वयं सतर्क रह सकें।

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