पीयूष गोयल ने हाथ से दर्पण छवि में अलग-अलग तरीके से पुस्तकें लिख कर रच दिया इतिहास

हम अपने जीवन में अनेक रिश्ते निभाते हैं और कई भूमिकाएँ जीते हैं, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण रूप वह होता है जब हम स्वयं को समझते हैं, अपने मूल्य को पहचानते हैं और अपनी क्षमताओं को स्वीकार करते हैं। सच्चे अर्थों में सफलता उसी क्षण शुरू होती है, जब व्यक्ति स्वयं की पहचान करता है और अपने भीतर छिपी संभावनाओं को समझकर आगे बढ़ता है। यही पहला कदम सफलता की दिशा में ले जाता है।

जीवन दर्पण की तरह है, जिसके दो पहलू होते हैं। एक स्वच्छ और चमकदार, जिसमें सब कुछ स्पष्ट दिखाई देता है, और दूसरा धुंधला, जिसमें कितनी भी कोशिश कर लें, कुछ साफ नजर नहीं आता। जीवन में आगे बढ़ने के लिए हमें स्वयं तय करना होता है कि हम किस पहलू को चुनेंगे, क्योंकि इसी निर्णय पर हमारी दिशा निर्भर करती है।

अपनी क्षमताओं की पहचान जीवन का अहम हिस्सा है और किसी भी लक्ष्य को पाने के लिए पूर्ण समर्पण आवश्यक होता है। आज हम ऐसे ही जुनून, साहस और समर्पण से भरे व्यक्ति की कहानी प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसने अपनी अनोखी कला से समाज को नई दृष्टि दी और अपने कार्यों से अनगिनत दिलों में पहचान बनाई।

पियूष गोयल का जन्म 10 फरवरी 1967 को माता रविकांता गोयल और पिता डॉ. देवेंद्र कुमार गोयल के यहाँ हुआ। पेशे से वे डिप्लोमा मैकेनिकल इंजीनियर, मटेरियल मैनेजमेंट में डिप्लोमा और वास्तु शास्त्र में डिप्लोमा धारक हैं, लेकिन उनकी असली पहचान एक मिरर इमेज राइटर के रूप में है। वर्ष 2000 में एक दुर्घटना के बाद, उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता का नियमित अध्ययन किया और तभी कुछ अलग व अनोखा करने का विचार उनके मन में आया।

वे कहते हैं कि मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियाँ उन्हें हमेशा प्रेरित करती रहीं और तभी उन्होंने शब्दों को उल्टा, यानी दर्पण शैली में लिखने का निर्णय लिया— “नर हो, न निराश करो मन को, कुछ काम करो, कुछ काम करो, जग में रहकर कुछ नाम करो।”

इसी प्रेरणा के साथ पियूष गोयल ने दर्पण शैली में लेखन शुरू किया और पूरी श्रीमद्भगवद्गीता को मिरर इमेज में लिख डाला। पहली बार देखने पर यह भाषा समझ से परे लगती है, लेकिन जैसे ही इसे दर्पण के सामने रखा जाता है, शब्द स्वयं बोलने लगते हैं और सब कुछ स्पष्ट दिखाई देता है।

पियूष गोयल विश्व की पहली मिरर इमेज पुस्तक ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के लेखक हैं, जिसे उन्होंने हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में, 18 अध्यायों और 700 श्लोकों सहित लिखा। अभ्यास इतना बढ़ा कि उन्होंने कई ऐसी पुस्तकें लिखीं, जिन्हें पढ़ने के लिए दर्पण का सहारा लेना पड़ता है।

कड़ी मेहनत और समर्पण के बल पर उन्होंने 18 से अधिक पुस्तकें विभिन्न अनोखे रूपों में लिखीं। जैसा कहा गया है, मेहनत से सफलता भले देर से मिले, लेकिन आत्मविश्वास के साथ चलने वाला व्यक्ति अंततः मंज़िल तक पहुँचता ही है, और पियूष गोयल इसका जीवंत उदाहरण हैं।

उनकी एक और अद्भुत कृति है सुई से लिखी गई ‘मधुशाला’। जब उनसे पूछा गया कि सुई से लिखने का विचार क्यों आया, तो उन्होंने बताया कि लोग अक्सर कहते थे कि उनकी किताबें पढ़ने के लिए दर्पण चाहिए, इसलिए उन्होंने सोचा कि कुछ ऐसा लिखा जाए जिसे बिना दर्पण के भी पढ़ा जा सके। लगभग ढाई महीने में उन्होंने हरिवंश राय बच्चन की विश्वप्रसिद्ध ‘मधुशाला’ सुई से लिखी, जिसे पन्नों की विशेष मोड़ संरचना के कारण बिना दर्पण के भी पढ़ा जा सकता है।

इसके बाद उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर की ‘गीतांजलि’ मेहंदी कोन से लिखी, साथ ही श्री दुर्गा सप्तशती, सुंदरकांड, आरती संग्रह, श्री साईं सच्चरित्र और रामचरितमानस के चयनित अंश भी विभिन्न शैलियों में रचे। अपनी ही पुस्तक ‘पियूष वाणी’ उन्होंने एल्यूमिनियम शीट पर लोहे की कील से उकेरी, जो उनकी रचनात्मक साहसिकता को दर्शाती है।

गहन अध्ययन के बाद उन्होंने विष्णु शर्मा की ‘पंचतंत्र’ की सभी कहानियाँ कार्बन पेपर की उल्टी सतह पर लिखीं, जिससे एक ओर दर्पण शैली और दूसरी ओर सीधी लिखावट एक साथ दिखाई देती है। इसके अतिरिक्त उन्हें संग्रह का भी शौक है, जिसमें फर्स्ट डे कवर, 3000 से अधिक पेन और विश्वप्रसिद्ध हस्तियों के ऑटोग्राफ शामिल हैं।

पियूष गोयल साहस और जुनून की सच्ची मिसाल हैं। एक दुर्घटना ने भले ही उनके जीवन की दिशा बदली, लेकिन उन्होंने अपने जज़्बे से उस बदलाव को सफलता की कहानी में बदल दिया। आज वे नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा हैं और उनका जीवन यह सिखाता है कि निरंतर प्रयास और आत्मविश्वास से असंभव भी संभव हो सकता है।

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