पासपोर्ट सेवा या परेशानी का केंद्र ? कानपुर PSK की कार्यप्रणाली पर उठे सवाल

 कानपुर के पासपोर्ट सेवा केंद्र (PSK) का उद्देश्य आवेदकों को पासपोर्ट से संबंधित सेवाएं सरल और तेज़ गति से उपलब्ध कराना है। लेकिन ज़मीनी हकीकत इस उद्देश्य से कोसों दूर नज़र आती है। हाल ही में सामने आया एक मामला इस व्यवस्था की कमज़ोरियों और अधिकारियों की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े करता है।

एक मामूली नाम विवाद, कई चक्कर

आवेदक का कहना है कि जब वह 22 अगस्त को री-इश्यू पासपोर्ट के लिए पहुंचे, तो प्रारंभिक जांच में कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन काउंटर C-1 पर बैठे अधिकारी ने उनकी 10वीं की मार्कशीट में पिता का मिडल नेम न होने पर आपत्ति जताई और अखबार में नोटिस प्रकाशित करने का निर्देश दिया। आश्चर्य की बात यह है कि यह आपत्ति दस्तावेजों के मूल उद्देश्य से ज्यादा प्रक्रियागत जटिलता का परिणाम प्रतीत होती है।

जानकारी का अभाव या जानबूझकर टालमटोल?

नोटिस प्रकाशित करने के बाद जब आवेदक दूसरी बार केंद्र पहुंचे, तो इस बार उनसे पिता का मूल पहचान पत्र मांगा गया। सवाल यह है कि यदि यह दस्तावेज़ अनिवार्य था, तो पहली अपॉइंटमेंट के समय क्यों नहीं बताया गया? क्या यह प्रणालीगत कमी है या आवेदकों को बार-बार आने पर मजबूर करने की प्रवृत्ति?

बेलगाम होती अधकारियों की जुबान 

स्थिति तब और विचलित करने वाली हो गई जब APO हेड ने कथित तौर पर यह टिप्पणी की— भले ही आपके पिता मेरे सामने जीवित खड़े हों, मैं बिना उनके पहचान पत्र की मूल प्रति पासपोर्ट को मंजूरी नहीं दूँगा।
यह बयान न केवल असंवेदनशीलता को दर्शाता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि नागरिकों के प्रति सहयोगी रवैया अपनाने के बजाय कैसे शक्ति का प्रदर्शन किया जाता है।

जनहित में सुधार की आवश्यकता

पासपोर्ट सेवा केंद्रों को केवल प्रक्रियागत अनुपालन पर नहीं, बल्कि आवेदक-हित पर ध्यान देना होगा। डिजिटल युग में, जहां सबकुछ ऑनलाइन ट्रैक और अपडेट हो सकता है, वहां आवेदकों को छोटी-छोटी जानकारियों के अभाव में चक्कर लगवाना सेवा की भावना के विपरीत है। सरकार को इस व्यवस्था की समीक्षा कर जवाबदेही तय करनी होगी। 

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