मनमोहन सिंह ने दी देश की इकोनॉमी को नई दिशा, जिससे बदल गई भारतीय अर्थव्यवस्था की तस्वीर

– डेट ट्रैप में फंसे भारत की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में निभाई मुख्य भूमिका

नई दिल्ली । भारत में जब भी उदारीकरण की शुरुआत और लाइसेंस राज के खात्मे की बात की जाएगी तो इसकी शुरुआत डॉ मनमोहन सिंह के नाम के साथ ही होगी। डॉ मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री और देश का वित्त मंत्री रहने के पहले विदेश व्यापार विभाग में आर्थिक सलाहकार, वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार, वित्त मंत्रालय के सचिव, भारतीय रिजर्व बैंक के डायरेक्टर और भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर भी रह चुके थे। अर्थशास्त्री से राजनेता बने डॉ मनमोहन सिंह को भारत में आर्थिक सुधारों और उदारीकरण का जनक माना जाता है। पीवी नरसिम्हा राव सरकार में वित्त मंत्रालय संभालने वाले डॉक्टर मनमोहन सिंह ने देश की इकोनॉमी को एक नई दिशा दी थी, जिससे खस्ताहाल हो चुकी देश की अर्थव्यवस्था दोबारा पटरी पर लौट सकी थी।

आजादी के बाद से ही जारी लाइसेंस राज और क्लोज डोर इकोनॉमी के कारण 90 के दशक की शुरुआत में देश का खजाना लगभग खाली हो गया था। विदेशी मुद्रा भंडार की स्थिति इतनी खराब हो गई थी कि भारत कर्ज के फंदे में फंसता जा रहा था। विदेशी कर्जों की किस्तों का भुगतान करने के लिए भी भारत के सामने नए कर्ज लेने की मजबूरी बन गई थी। विदेशी मुद्रा भंडार में सिर्फ 06 अरब डॉलर की राशि बची थी, जिससे एक महीने तक भी आयत नहीं किया जा सकता था। खाड़ी युद्ध के कारण मिडिल ईस्ट में काम करने वाले भारतीय नागरिकों द्वारा भेजी जाने वाली धनराशि में भी कमी आ गई थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में डॉक्टर मनमोहन सिंह ने देश की अर्थव्यवस्था को नई दिशा देने की कोशिश की। इस काम में उन्हें तब के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की ओर से पूरा समर्थन मिला।

प्रधानमंत्री का साथ मिलने पर वित्त मंत्री के रूप में डॉ मनमोहन सिंह ने जो किया, उससे न केवल देश की इकोनॉमी सुदृढ़ हुई, बल्कि उसे एक नई दिशा भी मिली। उन्होंने विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाने के लिए तात्कालिक उपाय करते हुए भारत के स्वर्ण भंडार के एक हिस्से को गिरवी रखवा दिया। इसी तरह दो चरणों में रुपये का 20 प्रतिशत अवमूल्यन किया। ऐसा होने से भारतीय निर्यात को प्रतिस्पर्धी बना पाना संभव हो सका, जिससे विदेशी मुद्रा की आवक बढ़ने लगी।

वित्त मंत्री के रूप में उन्होंने जो सबसे बड़ा काम किया, वो था औद्योगिक नीति का उदारीकरण और देश की व्यापार नीति में बदलाव। आयात निर्भरता कम करने और निर्यात को बढ़ावा देने के लिए मनमोहन सिंह ने लाइसेंस राज की जटिलताओं को काम करने का काम किया। इसके साथ ही औद्योगिक क्षेत्र में सरकारी कंपनियों के एकाधिकार को कम करने के लिए नीतिगत बदलाव करने का फैसला किया। इसके तहत विदेशी निवेश की सीमा बढ़कर 51 प्रतिशत तक कर दी गई। इसी तरह टैक्स सुधारों और सब्सिडी में कटौती के जरिए डॉ मनमोहन सिंह ने राजकोषीय घाटा कम करने की भी कोशिश की।

आर्थिक उदारीकरण की अपनी कोशिश को आगे बढ़ाते हुए डॉ मनमोहन सिंह ने 1991 के आम बजट में कई ऐसे प्रावधानों को शामिल किया, जिससे देश की इकोनॉमी को नई दिशा मिलने लगी। इसी बजट में टीडीएस (टैक्स डिडक्शन एट सोर्स) की शुरुआत की गई और कॉरपोरेट टैक्स को बढ़ाया गया। इसी तरह मनमोहन सिंह के इसी बजट में प्राइवेट सेक्टर को म्युचुअल फंड में भागीदारी करने की इजाजत दी गई।

1991 में जब डॉक्टर मनमोहन सिंह ने आर्थिक सुधार के लिए ये कदम उठाए, तब इसको लेकर कई तरह के सवाल भी उठाए गए, लेकिन मनमोहन सिंह की इन नीतियों की वजह से देश उदारीकरण की राह पर चल पड़ा जिससे आर्थिक प्रगति के दरवाजे खुलते चले गए और उनकी बनाई नीतियों के कारण भारत को ग्लोबल मार्केट में अपनी जगह बनाने का अवसर मिला।

प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह के कार्यकाल की कई मुद्दों पर आलोचना भी की जाती है, लेकिन इस तथ्य से इनकार भी नहीं किया जा सकता है कि उनके कार्यकाल में ही भारत का जीडीपी ग्रोथ 9 प्रतिशत की ऊंचाई तक पहुंच गया था। साल 2007 में भारत की विकास दर 9 प्रतिशत के स्तर पर पहुंचने के साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की दूसरी सबसे तेज अर्थव्यवस्था बन गई थी।

डॉ मनमोहन सिंह के कार्यकाल में टैक्स सुधार की दिशा में भी कई कदम उठाए गए। इनमें वैल्यू एडेड टैक्स (वैट) का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है, जिसके जरिए पुरानी जटिल टैक्स व्यवस्था को खत्म किया गया था। वैट के अलावा मनमोहन सिंह के कार्यकाल में सर्विस टैक्स व्यवस्था की भी शुरुआत की गई, जिससे देश के खजाने को ताकत मिली। इसके अलावा 2006 में मनमोहन सिंह के निर्देश पर ही देश में स्पेशल इकोनॉमिक जोन की शुरुआत की गई। मनमोहन सिंह की उपलब्धियां में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) का नाम भी लिया जा सकता है, जिसे अब मनरेगा कहा जाता है। कहा जाता है कि इस योजना की वजह से ही तमाम घोटालों में तब की यूपीए सरकार के मंत्रियों का नाम आने के बावजूद कांग्रेस लगातार दूसरी बार लोकसभा का चुनाव जीतने में सफल रही थी।

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