इतिहास बोध : वैज्ञानिक चेतना के विकास और क्षरण को समझना जरूरी… कार्ल मार्क्स को याद किया

  • जन संस्कृति मंच की ओर से मार्क्स जयंती का आयोजन
  • नए अविष्कार हमारे इतिहास की समझ को उन्नत करते हैं

लखनऊ । कार्ल मार्क्स की 207 वीं जयंती के अवसर पर जन संस्कृति मंच, लखनऊ की ओर से ‘इतिहास बोध और वैज्ञानिक चेतना’ पर वार्ता का आयोजन किया गया। इस विषय पर अपनी बात रखने के लिए मंच की ओर से ‘नई उम्मीद’ वैचारिक-सांस्कृतिक पत्रिका के संपादक ओम प्रकाश सिन्हा तथा लेखक-इतिहासकार व ‘तज़किरा’ के प्रधान संपादक असगर मेहदी को आमंत्रित किया गया। इन दोनों से विषय पर जसम लखनऊ के सचिव फरजाना महदी ने वार्ता की। आरंभ में नगीना निशा ने वक्ताओं तथा श्रोताओं का स्वागत किया।

‘इतिहास बोध और वैज्ञानिक चेतना’ पर हुई वार्ता में यह बात सामने आई कि वैज्ञानिक चेतना का संबंध जितना विज्ञान के विकास से है, उससे अधिक मानव समाज के विकास की ऐतिहासिकता से है। मनुष्य की चेतना में जड़ जमाए रूढ़िवादी विचारों को वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर कुछ कम तो किया जा सकता है लेकिन खत्म नहीं किया जा सकता है। इन विचारों का एक सामाजिक आर्थिक राजनीतिक आधार होता है। इस अवस्था के बदलाव की प्रक्रिया में ही मानव समाज अधिक तार्किक और मानवीय होता जाता है।

वार्ता में वैज्ञानिक चेतना के विकास और उसके क्षरण पर कई बिंदुओं और दृष्टिकोणों से बात आई। आज़ादी के बाद नेहरू के नज़रिए में वैज्ञानिक दृष्टिकोण यह बताता है कि मनुष्य को किस दिशा में यात्रा करनी चाहिए। सीवी रमन और मेघनाथ साहा ने वैज्ञानिक चेतना के उभार के लिये अथक प्रयास किए लेकिन यथास्थितिवादियों ने अपने नियंत्रण को क़ायम रखने में वैज्ञानिक चेतना को एक बाधा के रूप में माना।

वार्ता के दौरान यह बात आई कि इतिहास वर्तमान में सत्ता द्वारा पोलिटिकल टूल के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। नई शिक्षा नीति लाई गई। पाठयक्रम में तब्दीली की जा रही है। इतिहास के लेखन में विभिन्न धाराएं हैं। इसके बारे में वस्तुपरक नजरिया जरूरी है। अंग्रेज़ों विशेषकर जेम्स मिल द्वारा निर्धारित भारतीय इतिहास हिंदू, मुस्लिम और ब्रिटिश जैसे कालखंड के विभाजन पर आधारित है। वहीं दक्षिणपंथियों का नजरिया सांप्रदायिक है, मध्य काल के सत्ता संघर्ष को हिंदू और मुसलमान के रूप में पेश करता है जो उनकी राजनीति के अनुकूल है।

विचार-विमर्श तथा सवाल-जवाब के बाद यह विचार उभरा कि सामाजिक जीवन में हर परिघटना को उसकी ऐतिहासिकता के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसी से एक प्रगतिशील इतिहास की निर्मिति होती है। इतिहास भी कोई ठहरी हुई चीज नहीं है। बल्कि विज्ञान के नए-नए अविष्कार हमारे सामने नए तथ्य लाते हैं और हमारे इतिहास की समझ को उन्नत करते हैं। समाज में सत्ताधारी वर्ग हमेशा घटनाओं को उसकी ऐतिहासिकता से काटकर तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर हमारी इतिहास दृष्टि को विकृत करता है। इसके बरक्स वस्तुपरक दृष्टि के विकास का संघर्ष जरूरी है।

कार्यक्रम का समापन पटना से आए कलाकार अनिल अंशुमन और जसम की सांस्कृतिक टीम के द्वारा गोरख पांडेय के ‘इंकलाबी गीत’ से हुआ। इस मौके पर शैलेश पंडित, केके शुक्ला, प्रो अख्तर ज़माल अंसारी, धर्मेंद्र कुमार, तस्वीर नकवी, विमल किशोर, कल्पना पांडे, मंदाकिनी राय, रोहिणी जान, शहजाद रिजवी, वीरेंद्र त्रिपाठी, शांतम निधि, ए शर्मा, सुचित माथुर, आशीष कुमार भारती, रमाकांत आदि मौजूद थे।

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