
आज हम बात करेंगे एक ऐसे विषय की, जिसे अक्सर “पर्सनल चॉइस” कहकर नजरअंदाज़ कर दिया जाता है…लेकिन अब वक़्त आ गया है सच को देखने, समझने और बोलने का। सवाल बड़ा है और सीधा है। हिंदू पत्नियाँ मंज़ूर, मगर बच्चे मुस्लिम क्यों? क्या ये सिर्फ एक इत्तेफ़ाक है या फिर कोई रणनीति?
बॉलीवुड और राजनीति की ऊँचाई पर बैठे चेहरे जो भारत की जनता के रोल मॉडल कहे जाते हैं. वहाँ एक पैटर्न बार-बार दिखाई दे रहा है। आमिर खान — दो हिंदू पत्नियाँ। बच्चों के नाम: जुनैद, आयरा, आज़ाद। शाहरुख खान — पत्नी गौरी जो हिंदू है, लेकिन बच्चे: आर्यन, सुहाना, अबराम। सैफ अली खान और करीना बेटा: तैमूर, जिसका नाम सुनते ही इतिहास का खून बहता है। सिर्फ बॉलीवुड नहीं, शाहनवाज़ हुसैन, मुख्तार अब्बास नक़वी जैसे नेता हिंदू महिलाओं से विवाह करते हैं, लेकिन बच्चों के नाम मुस्लिम रखे जाते हैं। तो क्या सवाल नहीं बनता?
अगर ये “इंटरफेथ मैरिज” है,तो बच्चों का नाम भी इंटरफेथ क्यों नहीं होता?क्यों हर बार पहचान एक ही दिशा में झुकती है? राम, अर्जुन, विवेक, आकाश, अमित ये नाम कभी क्यों नहीं आते?
बॉलीवुड और राजनीति में एक अजीब लेकिन चिंताजनक पैटर्न लंबे समय से देखने को मिल रहा है, जिस पर अब तक समाज ने या तो चुप्पी साध रखी है या फिर उसे “पर्सनल चॉइस” कहकर नज़रअंदाज़ कर दिया गया है। लेकिन अब सवाल उठाना ज़रूरी हो गया है ,आखिर क्यों ज़्यादातर मुस्लिम अभिनेता और राजनेता हिंदू महिलाओं से शादी करते हैं, लेकिन जब बात बच्चों के नाम रखने की आती है, तो वो नाम मुस्लिम रखे जाते हैं? क्या ये सिर्फ एक संयोग है या फिर इसके पीछे कोई सुनियोजित मानसिकता है?
सवाल यह है कि ये नाम केवल एक फ़ैशन है या फिर जानबूझकर चुने गए प्रतीक? यह एक पैटर्न बनता जा रहा है -मुस्लिम पुरुष, हिंदू महिला और बच्चा जो मुस्लिम नाम और पहचान के साथ बड़ा होता है। अगर ये वाकई “इंटरफेथ” या “सेक्युलर” शादी है तो उसमें बच्चों के नाम भी सांझा संस्कृति के क्यों नहीं होते? क्यों कभी कोई बच्चा राम, अर्जुन या विवेक नहीं बनता? क्यों हर बार जुनैद, तैमूर, इब्राहीम जैसे नाम चुने जाते हैं?
इन सवालों को उठाते ही कुछ लोग तुरंत “लव-जिहाद” का जिक्र करके बहस को बंद करना चाहते हैं, लेकिन क्या यह सच में कोई साजिश नहीं, बल्कि एक मानसिकता का हिस्सा है? अगर हिंदू महिलाएँ आधुनिक और आत्मनिर्भर हैं, तो उन्हें इस गहराई को क्यों नहीं समझना चाहिए? क्यों उन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं होता कि उनकी आने वाली पीढ़ियाँ एक ऐसे मजहब में ढलेंगी जो उनकी संस्कृति और पहचान से बहुत अलग है? और क्या ये भी इत्तेफाक है कि ये घटनाएँ सिर्फ व्यक्तिगत स्तर पर नहीं बल्कि बॉलीवुड और राजनीति जैसे प्रभावशाली क्षेत्रों में हो रही हैं , जहाँ इन संबंधों को “सेक्युलर मिसाल” के रूप में पेश किया जाता है और जनता को यही सिखाया जाता है कि यही आदर्श हैं?
यह सब देखते हुए ये सवाल उठाना बहुत स्वाभाविक है कि क्या यह सांस्कृतिक उपनिवेशवाद का एक नया रूप है? पहले विदेशी आक्रांता तलवार के बल पर संस्कृति और धर्म बदलते थे, आज वह काम रिश्तों, शादी और नामकरण जैसे नर्म तरीकों से किया जा रहा है। और यह सब खुलेआम हो रहा है, मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग इसे प्यार, आधुनिकता और सेक्युलरिज्म का नाम देकर ढक देते हैं। लेकिन क्या अब समय नहीं आ गया कि इस पर खुल कर चर्चा हो? क्या अब भी हम चुप रहेंगे जब हमारी पहचान, हमारी संस्कृति, हमारी परंपराएँ धीरे-धीरे एक विशेष दिशा में ढाली जा रही हैं? इसलिए ये सवाल बार-बार पूछा जाना चाहिए ,अगर आपकी बीवियाँ हिंदू हैं, तो बच्चों का नाम सिर्फ मुस्लिम क्यों होता है? क्या यह सिर्फ इत्तेफाक है या फिर इसके पीछे कोई गहरी रणनीति और मानसिकता छिपी है? हमें इन सवालों से डरना नहीं चाहिए। यह नफ़रत नहीं है, यह सच को समझने का प्रयास है।
अगर समाज ने इस पर अभी भी चुप्पी साधी, तो आने वाले वर्षों में हमारी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान केवल किताबों और इतिहास में रह जाएगी। हर बार जब इस विषय को उठाया जाता है,
तथाकथित “सेक्युलर” वर्ग इसे ‘घृणा’, ‘धर्मविरोधी’, या ‘रूढ़िवादी सोच’ का नाम देकर दबा देता है।लेकिन क्या यह नफ़रत है, या फिर हमारी आने वाली पीढ़ियों की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान से जुड़ा एक बड़ा प्रश्न?
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