
मुंबई। हंसल मेहता का हालिया बयान और उनकी व्यक्तिगत कहानी ने एक बार फिर से भारतीय समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और हिंसा के मुद्दे पर बहस को ताजा कर दिया है। उन्होंने स्टैंडअप कॉमेडियन कुणाल कामरा के समर्थन में खड़े होकर अपनी 25 साल पुरानी अनुभव की याद दिलाई, जिसमें उन्हें भी एक राजनीतिक दल के समर्थकों द्वारा शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया गया था।
यह घटना तब की है जब उन्होंने अपने फिल्म ‘दिल पे मत ले यार’ के एक डायलॉग को लेकर सार्वजनिक रूप से माफी मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा था, और इसके दौरान उन्होंने मुंबई पुलिस की निष्क्रियता की भी आलोचना की।
कुणाल कामरा के मामले में भी हम इसी प्रकार की हिंसक प्रतिक्रिया देख रहे हैं, जब उन्होंने महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के खिलाफ एक टिप्पणी की। उनके इस बयान पर शिवसेना कार्यकर्ताओं ने अमेरिका में उन्हीं के स्टूडियो में तोड़फोड़ की, जिसे मेहता ने गलत ठहराते हुए कहा कि हिंसा और धमकियाँ किसी भी स्थिति में सही नहीं हो सकतीं।
इस पूरे प्रकरण में राजनीति की उपस्थिति भी स्पष्ट है। शिवसेना, जो पारंपरिक रूप से अपने आक्रामक रुख के लिए जानी जाती है, ने फिर से एक ऐसे मामले में प्रतिक्रिया दी है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सवाल उठाता है। मेहता का समर्थन इस विवाद को और भी गहरा बनाता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह सिर्फ एक व्यक्ति का मामला नहीं, बल्कि समाज में असहिष्णुता के बढ़ते रुझानों का प्रतीक है।
सोशल मीडिया पर इस विषय पर मिली-जुली प्रतिक्रियाएँ आ रही हैं। कुछ लोग मेहता की हिम्मत की तारीफ कर रहे हैं, जबकि कुछ उनके पुराने अनुभव को वर्तमान संदर्भ में लाने को सहानुभूति बटोरने का प्रयास मान रहे हैं। यह चर्चा इस बात पर भी प्रकाश डालती है कि भारत में बोलने की आजादी की सीमाएँ क्या हैं और यहाँ असहमति को कुचलने की प्रवृत्ति कितनी बढ़ रही है।
कुल मिलाकर, यह मामला न केवल मेहता और कामरा के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए एक महत्वपूर्ण बिंब प्रस्तुत करता है, जिसमें राजनीतिक और सामाजिक घटनाओं के बीच का जटिल संबंध प्रतिबिंबित हो रहा है। क्या वाकई में हर अभिव्यक्ति को हिंसा से जवाब देने का यह पैटर्न हमें एक खतरनाक दिशा में ले जा रहा है? यह सवाल अब खुलकर उठ रहा है।