गांव-चौपाल में नहीं सुनाई पड़ रही फगुआ की गूंज : खो रही फाल्गुनी परंपरा

प्रयागराज : भारत में उत्सव और अपनी माटी के गीत एक दूसरे के पर्याय रहे हैं। शायद ही कोई देश हो जहां समय परंपरा और त्योहारों के हिसाब से गीत और संगीत का सृजन किया जाता हो। कजरी हो, होली हो, नवरात्र हो वसंत या फिर अन्य त्योहारों का उत्सव, हर एक के हिसाब से हमारे लोकगीतों की अपनी एक विरासत और सनातन परंपरा भी रही है।

आधुनिकता के चकाचौंध और आज के बदलते दौर में अपने इन गीतों का सिलसिला कहीं थम सा गया है या इसके स्वरूप में विकृतियां आ रही हैं। होली गीतों की अपनी लोकपरंपरा और उस पर आसन्न सांस्कृतिक संकट से दूर अपने गुम हो रहे फागुनी गीतों को गांव-चौपाल में गुलजार करने की जरूरत है।इसके लिए हमारे लोक कलाकारों को चाहिए कि अपनी माटी के ऐसे गीतों का लोक रंग सहेज कर रखें।

अपनी मनोहर और अरुण छवि के साथ ऋतुराज वसंत एक बार फिर प्रकृति के पोर-पोर में दस्तक दे चुका है। एक ओर मादक गंध से अनुरंजित वन, बाग, खेत सिवान तो दूसरी ओर प्रीति रीति और अनुहार मनुहार के परस्पर अनुबंध भी मधुमास की नूतन सर्जना के साथ फागुनी माहौल में जीवन्त हो उठे हैं। घर-घर, आंगन आंगन की देहरी पर खड़ी प्रणय प्रेम की परिकल्पनाएं भी मौसम की रंगोली के साथ सरकार हो उठीं तो वहीं गदराई बालियों एवं पुष्पों का आलिंगन करती तितलियों ने भंवरों को नेह निमंत्रण दे वसंत की सनातनी परंपरा को अनुरंजित किया। प्रेम सौहार्द, हास परिहास, हंसी ठिठोली को इसी वसंत और होली ने समय समाज को तार-तार जोड़ते हुए उल्लास को नए अर्थ दिए।

खबरें और भी हैं...

अपना शहर चुनें

जब मनोज कुमार ने सरकार से पंगा, बैन हो गई थी फिल्में आँखों के साथ आवाज से भी जादू करती है मोनालिसा मैं अपनी जिंदगी की लड़ाई हार गया : धर्मात्मा निषाद विवाह के लिए बना खाना ट्रैफिक जाम में फंसे यात्रियों को खिलाया चाय के हैं शौकीन तो अब पीते-पीते घटाएं वजन