लखनऊ : क्रांतिकारी तेवर के कवि और हिंदी के पहले गजलकार दुष्यंत कुमार की आज पुण्य तिथि है। साहित्य प्रेमी उन्हें आज याद कर रहे हैं। उनकी कविताएं बदलाव और उम्मीद की किरण होती हैं। जब कभी निराशा या हताशा के चक्रब्यूह में घिरते हैं, तो दुष्यंत हमें रास्ता दिखाते हैं। निदा फ़ाज़ली उनके बारे में लिखते हैं।
दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी है। यह गुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है। उनका जन्म उप्र में बिजनौर जिले के राजपुर नवादा गांव में 27 सितंबर 1931 को और निधन 30 दिसंबर 1975 को हुआ था। उन्होंने बहुत छोटा सा जीवन जिया लेकिन उनकी रचनाएं अमर हो गईं। संसद और विधानसभाओं में भी जनप्रतिनिधि समय-समय पर उनकी रचनाओं को दोहराता रहा है।
उनकी एक प्रसिद्ध कविता…
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।
खास सड़कें बंद हैं कबसे मरम्मत के लिए
ये हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है।
मस्लहत आमेज़ होते हैं सियासत के कदम
तू न समझेगा सियासत तू अभी इंसान है।
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।
होने लगी है जिस्म में जुम्बिश तो देखिए
इस परकटे परिंदे की कोशिश तो देखिए।
गूँगे निकल पड़े हैं जुबाँ की तलाश में
सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिए।
एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ।
तू किसी रेल-सी गुजरती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ।
मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आप को सुनाता हूँ
एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ
हर तरफ़ एतराज़ होता है
मैं अगर रौशनी में आता हूँ
एक बाज़ू उखड़ गया जब से
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ
मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूँ
कौन ये फ़ासला निभाएगा
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ