
यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मुलाकात में जो झड़प जैसी स्थिति बनी, उसके बाद से भारत के सदा संदिग्ध (यूजुअल सस्पेक्ट्स) जमात में बड़ी हलचल है। कई मासूम ज़ेलेंस्की को ‘छप्पन इंची’ घोषित करने पर आमादा हैं। यूके में ज़ेलेंस्की की प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर से मुलाकात और यूके के जेलेंस्की को समर्थन की बातों के बाद से गिरोहों में उछल-कूद और भी बढ़ी है। लेकिन प्रश्न ये है कि क्या अपनी छवि के चक्कर में ज़ेलेंस्की ने यूक्रेन की जनता के भविष्य की कुर्बानी दे डाली है?
इसके लिए हमें रूस-यूक्रेन और पश्चिमी देशों के संबंधों को थोड़ा सा पीछे जाकर देखना पड़ता है। शीत युद्ध के बाद के समय में जब सोवियत संघ बिखर गया था, उस समय यूक्रेन अलग हुआ और तभी से वाशिंगटन ने इस क्षेत्र में नाटो की पैठ बनाने की कोशिशें तेज कर दी थी। कहने के लिए तो गोर्बाचोव को अमेरिका ने कहा कि वो पूर्व की ओर नहीं बढ़ेंगे लेकिन असल में नाटो पोलैंड और बाल्टिक सागर के इलाकों में अपनी जड़ें जमा रहा था। सीआईए ने जैसे कई देशों में लोकतंत्र की हत्या करने के लिए आंदोलनों की मदद की है, वैसे ही 2004 में वो रूस का समर्थन करने वाले उम्मीदवार को हराने के लिए ‘ऑरेंज रेवोलुशन‘ नाम के एक आन्दोलन को शह देने में जुटी थी। युशचेंको के बदले विक्टर यानुकोविच सत्ता में आये।
विक्टर यानुकोविच भी 2014 आते-आते पश्चिमी देशों की आँखों में खटकने लगे क्योंकि उन्होंने यूरोपियन यूनियन के व्यापार समझौतों से इन्कार कर दिया था। अपने देश की कुर्बानी देकर विदेशियों को आगे बढ़ने न देने की कोशिशों के कारण सीआईए ने 2014 में तख्तापलट को अंजाम दिया। जैसा भारत में कभी राडिया टेप काण्ड में सुनाई दिया था, वैसे ही इस काण्ड में यानुकोविच के हटने से पहले ही विक्टोरिया नुलैंड जैसे अधिकारी अगली सरकार किसकी हो ये तय कर रहे थे। इस समय तक नव-नाजी समूह (Azov Battalion) इतने शक्तिशाली हो चुके थे कि वो राजधानी कीव तक नाजियों के जश्न मनाते थे।
जो नयी सरकार आई उसने रूसी भाषा पर प्रतिबन्ध लगाया और इस पर डोनबॉस और क्रीमिया के लोग भड़क गए। पूर्वी यूक्रेन में रूसी बोलने वालों पर अत्याचार होने शुरू हुए। जनमत संग्रह में क्रीमिया में जब 90 प्रतिशत लोग रूस में शामिल होने के पक्ष में दिखे तो तथाकथित लिबरल कहलाने वाले लोगों ने असली दमन शुरू किया। आठ वर्षों तक यूक्रेन की सरकार अपने ही लोगों पर गोलीबारी करती रही और आज जो यूके, ज़ेलेंस्की का समर्थन करके अपनी पीठ खुद थपथपा रहा है, वो भी नरसंहारों पर चुप रहा।
ऐसा नहीं था कि ये घटनाएं बिना स्थानीय संगठनों के ही चल रही थी। अमेरिकी फण्ड, विशेषकर यूएसऐड के जरिये जाने वाले फण्ड के जरिये ‘फ्रीडम हाउस’ जैसे संगठन बनाये गए थे। इनके ही माध्यम से ‘ऑरेंज रेवोलुशन’ जैसे आन्दोलन छेड़े गए। जो पुरानी फाल्ट लाइन्स (विभाजक रेखाएं) थीं, चाहे वो रुसी और यूक्रेनियाई भाषा के झगड़े हों, दोनों देशों के चर्च की प्रतिस्पर्धा हो, इन सबको उकसाते रहा गया। कम्युनिस्टों का एक पुराना कारनामा होलोडोमोर भी था। स्टालिन ने जबरन ‘कलेक्टिवेशन’ यानी सामूहिक खेती के लिए यूक्रेन के लोगों को मजबूर किया था।
कम्युनिस्टों ने किसानों की जमीनें हड़प ली थीं, और विरोध करने वाले लोगों को गोली मार दी या साइबेरिया भेज दिया। इसकी वजह से अकाल आया और होलोडोमोर (भूखमरी) से 1932-33 में तीस लाख से एक करोड़ यूक्रेनियाई लोग मरे थे। इस घटना को जीवित रखा गया। बार-बार याद दिलाया गया। रह-रह कर कोई यूरोपियन संघ का सदस्य देश होलोडोमोर को नरसंहार के रूप में मान्यता देता और उसपर छिड़ी बहसों से होलोडोमोर की यादें यूक्रेन के लोगों के लिए फिर से ताजा हो जाती। कुछ ही समय पहले फ्रांस ने होलोडोमोर को नरसंहार के रूप में मान्यता दी। इसके लिए जेलेंस्की ने फ्रांस का आभार जताया और रूस ने इस बात का विरोध भी किया था।
वापस मौजूदा दौर पर चलें तो ज़ेलेंस्की के पास कोई राजनैतिक दल नहीं था, न ही वो किसी तरह से राजनीति से जुड़ा हुआ कोई व्यक्ति था। वो एक टीवी शृंखला में कॉमेडी एक्टर (मसखरा) था। मार्च 2018 में अचानक निर्देशन की कंपनी (Kvartal 95) ने उसी नाम से एक राजनैतिक दल का निबंधन करवाया, जो टीवी शृंखला में जेलेंस्की की पार्टी का नाम था– ‘सर्वेंट ऑफ द पीपल‘। दिसम्बर 2018 में जेलेंस्की ने राष्ट्रपति चुनावों में उतरने की घोषणा कर दी और बिलकुल वैसा ही मुद्दा चुना जैसा आप भारत में भी देख चुके हैं। जी हाँ, मुद्दा भ्रष्टाचार था और ये आप दिल्ली में देख चुके हैं।
राष्ट्रपति बनने के बाद ज़ेलेंस्की एमआई6 (ब्रिटिश गुप्तचर संगठन) के रिचर्ड मूर से 2020 में मिल रहे थे। ओर्थोडॉक्स चर्च की प्रमुखता वाले इलाकों से होने पर भी कैथोलिक वेटिकन जाकर ब्रिटिश मूल के बिशप से मिल रहे थे। चुनाव का ज़ेलेंस्की का खर्च इहोर कोलोमोइस्की ने उठाया था जो तेल और बैंकों के व्यापार से जुड़ा एक बड़ा उद्योगपति है। सत्ता में आने के बाद ज़ेलेंस्की कोई शांति-व्यवस्था नहीं लाये बल्कि डोनबास के पास यूक्रेन की सेनाएं विपक्षियों को कुचलने के लिए तैनात हो चुकी थी।
रूस के पास 2022 में कोई विकल्प ही नहीं बचे थे। सीआईए और नाटो की कठपुतली ज़ेलेंस्की को मनमानी करने दिया जा सकता था। नाटो के यूक्रेन में बेस बनाने और पकड़ कायम करने छोड़ा जा सकता था, डोनबास में रुसी बोलने वालों को रूस मरने छोड़ सकता था, या फिर सैन्य अभियान के जरिये वो इसे रोकता। रूस ने सैन्य अभियान का रास्ता चुना। जवाब में अमेरिकी कंपनियों ने रूस में अपनी सेवाएँ बंद कर दी। बैंकिंग व्यवस्था में वीसा जैसे माध्यम जो ऑनलाइन लेन-देन में काम आते हैं, वो बंद कर दिए गए। इसी से मोदी सरकार ने भारत में सीख लेते हुए, ‘रुपे’ नाम का विकल्प खड़ा कर लिया। तेल भण्डार रूस के ही पास थे इसलिए अभी भी यूरोपीय संघ के देश तेल रूस से ही खरीद रहे हैं, भले प्रतिबन्ध जितने भी लगा रखे हों।
कुल मिलाकर रूस के हमलों के बाद यूक्रेन की जो स्थिति है, उसे सुधारने की क्षमता या राजनैतिक सूझ-बूझ कहीं से ज़ेलेंस्की के पास नहीं दिखती है। जैसे भ्रष्टाचारी उसके साथ सत्ता का सुख लूटते रहे हैं, उस स्थिति में वो मदद के नाम पर मिले पैसों का घपला रोक पायेगा, ऐसा भी नहीं लगता। चुनाव रुकवाकर तानाशाही रवैया भी वो दिखा चुका है और NGOs के जरिये बनी ऐसी पार्टियों के कामकाज से भी भारतीय परिचित हैं। किसी भी देश में मौजूद विभाजक रेखाओं (फाल्ट लाइन्स) पर लोकतंत्र बचाने या संविधान बचाने के नाम पर ऐसे ही आन्दोलन चलाये जाते हैं और उनका परिणाम किसी तानाशाह को स्थापित करना ही होता है। विदेशों में कई उदाहरणों में ये दिखेगा, उम्मीद है यूक्रेन के ताजा उदाहरण में भारत में वही भाषा, क्षेत्रवाद, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे कैसे ‘लोकतंत्र/संविधान बचाओ’ कहने वाले प्रयोग कर रहे हैं, वो भी दिख ही गया होगा।