CJI गवई और राकेश किशोर का मामला ‘पॉपुलिस्ट’ या ‘पब्लिसिटी-सीकिंग’ पर थमा

नई दिल्ली। भारतीय लोकतंत्र की आत्मा उसके संविधान और न्यायपालिका में बसती है, जहां समानता, स्वतंत्रता और न्याय के आदर्शों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। वस्‍तुत: सर्वोच्च न्यायालय को इसी आत्मा का रक्षक कहा जाता है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह प्रश्न बार-बार उठ रहा है कि क्या यह रक्षक संस्था सभी समुदायों के लिए समान रूप से न्यायसंगत है? जब मुद्दे बहुसंख्यक समाज, हिन्दू परंपराओं या सांस्कृतिक अधिकारों से जुड़े होते हैं, तो न्यायिक रवैया अक्सर असहज और असंतुलित दिखाई देता है।

जनहित याचिका : उद्देश्य से औपचारिकता तक

भारत में जनहित याचिका (पीआईएल) की शुरुआत 1980 के दशक में हुई थी ताकि समाज के हाशिये पर खड़े लोगों को भी न्याय का दरवाजा खुला मिले। ‘लोकस स्टैंडी’ की दीवार को तोड़कर सुप्रीम कोर्ट ने आम नागरिकों को न्याय की प्रक्रिया में भागीदार बनाया। किंतु धीरे-धीरे यह औजार राजनीतिक और विमर्शजनित हथियार बन गया। आज अदालतें कई बार ऐसी याचिकाओं को ‘पॉपुलिस्ट’ या ‘पब्लिसिटी-सीकिंग’ बताकर खारिज कर देती हैं।

इसी पृष्ठभूमि में सीजेआई गवई और अधिवक्ता राकेश किशोर विवाद तथा अश्विनी उपाध्याय की लगातार खारिज होती याचिकाएँ यह संकेत देती हैं कि बहुसंख्यक समाज से जुड़े मुद्दों को न्यायपालिका किस दृष्टि से देखती है। जब कोई वकील समान नागरिक संहिता, अवैध धर्मांतरण या मंदिर प्रबंधन में राज्य नियंत्रण जैसे विषय उठाता है, तो अदालत प्रायः उन्हें “राजनीतिक एजेंडा” बताकर किनारे रख देती है।

हिन्दू विषयों पर अदालत की असहजता

वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने संविधान के मूल सिद्धांतों समानता, धर्मनिरपेक्षता और एकरूप न्याय व्यवस्था को आधार बनाकर दो सौ से अधिक जनहित याचिकाएँ दाखिल कीं। परंतु इन याचिकाओं का परिणाम लगभग एक सा रहा या तो खारिज या टिप्पणी के साथ स्थगन।

कई बार आरोप लगता है कि अश्विनी उपाध्याय जैसे वकील ‘संपूर्ण समाज’ के नाम पर भाजपा के राजनीतिक एजेंडा को आगे बढ़ा रहे हैं। लेकिन, यह आरोप केवल हिन्दू विषयों अथवा बहुसंख्यक हितों की याचिकाओं तक ही क्यों सीमित है? जब विभिन्न समुदायों, अल्पसंख्यकों, सामाजिक वंचितों या अन्य संवेदनशील वर्गों की सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाएं राजनीतिक रंग लिए सामने आती हैं, तब अदालत चिंतित या सतर्क नहीं दिखती। इससे न्याय का दोहरा मापदंड की ओर इशारा होता है।

वास्‍तव में यहां सोचने एवं विमर्श का विषय यह है कि ये वही न्‍यायालय है जोकि अल्पसंख्यक समुदाय, जातीय भेदभाव या आरक्षण जैसे विषयों पर जब सुनवाई करती है, तो अत्यंत संवेदनशील, सहानुभूतिपूर्ण और समयबद्ध रवैया अपनाती है। आज यही विरोधाभास समाज में न्याय के दोहरे मापदंड की छवि बनाता है।

संवैधानिक धर्म और न्यायपालिका की जिम्मेदारी

भारत का संविधान अपने अनुच्छेद 14, 15 और 25 में समानता, भेदभाव-निषेध और धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है। इन अनुच्छेदों की चेतना यह कहती है कि कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी भी धर्म या समुदाय से जुड़ा हो, कानून की नजर में समान रहेगा। न्यायपालिका की भूमिका इन अनुच्छेदों की रक्षा करना है, न कि उन्हें समाजशास्त्रीय संतुलन के तराजू में तौलना। यदि न्यायपालिका यह मानकर चलती है कि “बहुसंख्यक समाज स्वतः सशक्त है,” तो वह संविधान की मूल आत्मा से भटक जाती है। क्योंकि संविधान ने शक्ति का वितरण धर्म या जनसंख्या के आधार पर नहीं, बल्कि नागरिकता की समानता के सिद्धांत पर किया है।

न्यायपालिका के लिए यह आवश्यक है कि वह समान संवेदनशीलता के साथ हर वर्ग की सुनवाई करे। यदि अल्पसंख्यक के अधिकारों की रक्षा न्याय का कर्तव्य है, तो बहुसंख्यक की न्यायसंगत माँगों की उपेक्षा भी उतनी ही असंवैधानिक है। यही “संवैधानिक धर्म” (Constitutional Morality) का वास्तविक अर्थ भी है कि न्याय केवल कमजोर के लिए नहीं, बल्कि सबके लिए समान रूप से सुनिश्चित हो।

संस्थागत असंतुलन और बार काउंसिल की भूमिका

वकीलों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई में भी यह असंतुलन दिखाई देता है। बार काउंसिल या अदालतें हिन्दू विषयों पर सक्रिय वकीलों को तत्काल नोटिस देती हैं, जबकि अन्य मामलों में यही तत्परता गायब रहती है। न्याय के भीतर यह चयनात्मकता उस निष्पक्षता को चोट पहुँचाती है, जिस पर पूरी व्यवस्था टिकी है।

संविधान, संस्कृति और समानता : एक व्यापक विमर्श

भारत की न्याय व्यवस्था पश्चिमी उदार मॉडल पर टिकी जरूर है, लेकिन उसकी आत्मा भारतीय समाज की विविधता में है। यहाँ धर्म केवल आस्था नहीं, बल्कि सामाजिक संगठन की संरचना है। अतः जब बहुसंख्यक समाज की धार्मिक संस्थाओं मंदिरों, ट्रस्टों, शिक्षा व्यवस्थाओं को न्यायालय बराबर अवसर नहीं देता, तो यह केवल एक समुदाय का प्रश्न नहीं रहता; यह संवैधानिक संस्कृति के क्षरण का संकेत बन जाता है।

समान नागरिक संहिता, समान शिक्षा नीति या धर्मांतरण पर पारदर्शी कानून ये केवल हिन्दू एजेंडा नहीं, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 44 और 25 की तार्किक परिणति हैं। इन्हें राजनीतिक रंग देकर अदालत स्वयं संविधान की दिशा से भटकती है।

संस्थागत सुधार व व्यावहारिक संतुलन की आवश्यकता

सबको समान न्याय, बिना निजी, राजनीतिक अथवा सांस्कृतिक पूर्वाग्रह के, अदालत की सबसे पहली जिम्मेदारी है। बहुसंख्यक समाज के विषयों, धार्मिक प्रशासन, सांस्कृतिक मामलों और सार्वजनिक नीति संबंधी याचिकाओं को भी वही संवेदनशीलता, तत्परता और निष्पक्षता मिलनी चाहिए, जो अन्य समुदायों या संवेदनशील वर्गों की याचिकाओं को मिलती है। अन्यथा, न्याय-कक्षों में उपहास, असंगति और पूर्वाग्रह का वातावरण लोकतांत्रिक भारत के भविष्य पर गहरा प्रश्नचिह्न लगा देगा।

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