बिहार की अनोखी पहल: गया में गीर गायों की बन रही कुंडली, नामकरण में झलकता है गौ विज्ञान और पौराणिक आस्था

बिहार: गयाजी जिले में गौ-पालन को लेकर एक अनूठी परंपरा शुरू की गई है, जो विज्ञान, आध्यात्म और परंपरा का अनोखा संगम है। जिले के मटिहानी गांव स्थित ‘श्रीकृष्ण गीर गौशाला’ में गुजरात के गीर जंगलों से लाई गई 200 से ज्यादा गायों का पालन-पोषण और संरक्षण किया जा रहा है। इस गौशाला की स्थापना बृजेंद्र कुमार चौबे ने करीब आठ साल पहले मात्र दो गायों से की थी। आज यह गौशाला 210 गीर गायों का घर है और प्रतिदिन 250 लीटर से अधिक दूध का उत्पादन हो रहा है, जिसे गया शहर में 140 रुपये प्रति लीटर तक बेचा जाता है।

गायों की कुंडली और नामकरण की विशेष परंपरा

इस गौशाला की सबसे खास बात यह है कि यहां हर गाय की कुंडली बनाई जाती है और वैज्ञानिक व धार्मिक आधार पर उसका नामकरण किया जाता है। बृजेंद्र चौबे के अनुसार, गायों की कुंडली बनाकर उनके नक्षत्र, ग्रह और योग का अध्ययन किया जाता है। इसके पीछे मान्यता है कि समुद्र मंथन के समय माता लक्ष्मी जिस नक्षत्र में गाय के साथ प्रकट हुई थीं, उसी नक्षत्र में जन्मी गायें मंदिरों में नंदी रूप में पूजनीय होती हैं।

गौ विज्ञान और धार्मिक ग्रंथों में वर्णित है कि भगवान श्रीकृष्ण ‘पद्मा’ गाय का दूध पीते थे। इसी आधार पर यह विश्वास है कि किसी विशेष योग, मूल या नक्षत्र में जन्मी गीर गाय भविष्य में बहुला, सुशीला या कामधेनु जैसी हो सकती है।

औषधियों के लिए पंचगव्य का वैज्ञानिक उपयोग

गौशाला में कुंडली बनाने का एक और उद्देश्य पंचगव्य से औषधियां तैयार करना है। गाय के जन्म नक्षत्र और गोत्र के अनुसार यह तय किया जाता है कि किस रोग के लिए उसका पंचगव्य दूध, दही, घी, मूत्र और गोबर सबसे प्रभावी रहेगा। यही नहीं, यहां यह भी दावा किया जाता है कि गीर गायें वातावरण में ऑक्सीजन का स्तर बढ़ाती हैं — जहां वे रहती हैं, वहां ऑक्सीजन स्तर सामान्य से करीब 23% अधिक होता है।

गया की धरती पर गौरक्षा का यह अनूठा प्रयोग न सिर्फ ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत कर रहा है, बल्कि भारतीय संस्कृति और गौ विज्ञान के संरक्षण की दिशा में भी एक प्रेरणादायी कदम बनता जा रहा है।

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