बरेली : डीएम से मदद की उम्मीद लेकर बरेली पहुँची रेसलर आयशा

भास्कर ब्यूरो

  • डीएम अविनाश सिंह ने दिखाई संवेदनशीलता, कहा- बेटी को अकेले नहीं लड़ना पड़ेगा

बरेली। गरीबी की चादर ओढ़े, सपनों की चिंगारी जलाए, आंबेडकर नगर की एक बहादुर बेटी गुरुवार को बरेली पहुँची। कोई शौक नहीं था, कोई राजनीतिक सिफारिश नहीं, न ही नाम चमकाने का मकसद। उद्देश्य था सिर्फ और सिर्फ राहत की उम्मीद। बात हो रही है राष्ट्रीय स्तर की रेसलर आयशा की, जिसने तमाम कठिनाइयों के बावजूद अपने खेल को जिंदा रखा और अब अपनी जिंदगी की सबसे बड़ी लड़ाई लड़ रही है आर्थिक संकट से।

आयशा जलालपुर तहसील के गांव पक्खनपुर की रहने वाली हैं। एक बेहद साधारण परिवार की बेटी, जिसने महज जज्बे के बल पर राष्ट्रीय स्तर तक का सफर तय किया। मगर कोरोना महामारी ने उसकी दुनिया ही उजाड़ दी। महामारी के दौरान पिता चल बसे। मां पहले से ही बीमार चल रही थीं। घर में आय का कोई जरिया नहीं बचा। ऐसे में आयशा के सामने दो रास्ते थे या तो हालात के आगे हार मान ले या फिर अपने हौसलों को हथियार बना ले। उसने दूसरा रास्ता चुना।

बिना किसी संसाधन के आयशा ने मेहनत जारी रखी। फरवरी 2025 में आंबेडकर नगर में आयोजित ओपन स्टेट कुश्ती प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल जीतकर अपनी प्रतिभा साबित कर दी। यह वही प्रतियोगिता थी, जहां तत्कालीन डीएम अविनाश सिंह ने उसकी मेहनत और संघर्ष को देखकर उसे स्कूटी इनाम में दी थी, जिससे वह स्टेडियम तक आसानी से आ-जा सके।

खेल को प्रोफेशनल स्तर पर ले जाने के लिए आयशा दिल्ली चली गईं। इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में अभ्यास शुरू किया। एक किराए के कमरे में किसी तरह गुजारा कर रहीं थीं। मगर साधनों के बिना संघर्ष दिन पर दिन गहराता गया। न पर्याप्त डाइट, न कोई स्पॉन्सर और न ही आर्थिक मदद। दिल्ली जैसे महंगे शहर में रहना एक अकेली लड़की के लिए वैसे ही कठिन है, ऊपर से आर्थिक तंगी ने कमर तोड़ दी।
बीते दिन आयशा एक बार फिर हिम्मत जुटाकर अपने जिले के डीएम से मिलने पहुंचीं, लेकिन उन्हें पता चला कि अब अविनाश सिंह की बरेली में तैनाती हो गई है। बस फिर क्या था, गुरुवार को बिना किसी झिझक, उम्मीद की डोर थामे ट्रेन में बैठकर बरेली पहुँच गईं। सीधा कलेक्ट्रेट पहुँचकर उन्होंने डीएम अविनाश सिंह से अपनी आपबीती साझा की।

डीएम अविनाश सिंह, जो पहले भी आयशा की प्रतिभा और संघर्ष से प्रभावित हो चुके थे, ने एक बार फिर संवेदनशीलता दिखाई। उन्होंने तुरंत आंबेडकर नगर के वरिष्ठ अधिकारियों से बात की और आयशा के लिए सरकारी नौकरी की व्यवस्था करने के निर्देश दिए। साथ ही भरोसा दिलाया कि वो आयशा की मदद के लिए हर संभव प्रयास करेंगे।

आयशा की कहानी देश के उन हजारों खिलाड़ियों की प्रतिनिधि कहानी है, जो गरीबी, सामाजिक बाधाओं और सिस्टम की बेरुखी से लड़ते हुए देश का नाम रोशन करने की कोशिश में लगे हैं। उनकी मेहनत के लिए मंच तो है, लेकिन साधन नहीं। सुविधाएं नहीं। आयशा जैसी बेटियों के लिए न तो कोई नियमित सहायता योजना है, न ही कोई भरोसेमंद सहयोग नेटवर्क।

बातचीत में आयशा ने कहा कभी-कभी सोचती हूं छोड़ दूं सब, लेकिन फिर पापा की याद आती है। उन्होंने हमेशा कहा था कि बेटी को लड़ना आता है। मैं हार नहीं मानूंगी। डीएम सर ने एक बार फिर मुझे उम्मीद दी है।

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