बरेली : जमीन की कीमतों का खेल, पुलिस-लेखपाल की गठजोड़ से भूमाफिया हो रहे मालामाल

बरेली। जैसे-जैसे जमीन की कीमतें बढ़ती जा रही हैं, वैसे-वैसे बरेली में भूमाफियाओं और जालसाजों का दुस्साहस भी आसमान छूने लगा है। खासकर इज्जतनगर और बारादरी जैसे क्षेत्रों में हालात बेहद चिंताजनक हो चुके हैं। इन इलाकों में भू-माफिया सक्रिय रूप से फर्जी दस्तावेजों और बैनामों के दम पर करोड़ों की जमीनों पर अवैध कब्जा करने में लगे हैं और हैरानी की बात ये है कि इस लूट में कुछ पुलिसकर्मी और राजस्व कर्मी भी खुलकर साथ दे रहे हैं।

  • प्रॉपर्टी रेट बढ़ते ही शुरू हुआ खेल, पुलिस की ढाल और लेखपाल की कलम से गरीबों की जमीन हड़पने का धंधा हुआ तेज
  • थानों में शिकायत करने वालों को मिलती है धमकी, भूमाफिया बन गए इलाके के ‘गॉडफादर’, सिस्टम बना उनका सहयोगी

यह मामला सिर्फ फर्जी बैनामों या जमीन कब्जाने की कोशिशों तक सीमित नहीं है, बल्कि इन प्रयासों को खुला संरक्षण देने वाले सिस्टम की सड़ांध तक जा पहुंचा है। अगर बीते कुछ वर्षों की घटनाएं उठाकर देखी जाएं, तो साफ हो जाता है कि इस गोरखधंधे में न केवल जालसाज शामिल हैं, बल्कि उनकी पीठ ठोकने वाले खाकीधारी और कलम घिसने वाले बाबू भी बराबर के हिस्सेदार हैं।

बीते वर्ष पीलीभीत बाइपास पर दिनदहाड़े हुआ गोलीकांड इसी सड़ी-गली व्यवस्था की जीती-जागती मिसाल बना। जमीन के एक बेशकीमती टुकड़े को लेकर हुए इस संघर्ष में हथियार चले, जानें खतरे में पड़ीं और देशभर में बरेली की छवि शर्मसार हुई। इस मामले में इज्जतनगर थाना प्रभारी समेत कुल छह पुलिसकर्मियों को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया गया। लेकिन असल सवाल ये है कि निलंबन से क्या उस गठजोड़ की जड़ें खत्म हो गईं, जो सालों से भूमाफियाओं को बढ़ावा दे रहा है?

प्रशासन ने कार्रवाई के नाम पर निलंबन का चश्मा पहना दिया, लेकिन इस पूरे नेटवर्क को उजागर कर ध्वस्त करने की ईमानदार कोशिश न तब हुई थी, न आज तक हो रही है। इस साल की शुरुआत में ही बारादरी थाना क्षेत्र में एक चौंकाने वाला मामला सामने आया, जहां चकबंदी लेखपाल सावन कुमार की मिलीभगत से करोड़ों की सरकारी जमीन को निजी बता दिया गया और उस पर कब्जे की कवायद शुरू हुई। यह सबकुछ बारादरी पुलिस की निगाहों के सामने हुआ। मगर तब तक कुछ नहीं हुआ, जब तक मामला तूल नहीं पकड़ गया।

जैसे ही मामला बाहर आया, तत्कालीन इंस्पेक्टर सुनील कुमार को हटाया गया, सेटेलाइट चौकी इंचार्ज को निलंबित किया गया और दो अन्य पुलिसकर्मियों पर भी कार्रवाई हुई। सवाल उठता है कि क्या केवल इंस्पेक्टर और चौकी इंचार्ज ही दोषी थे? क्या लेखपाल को निलंबित करना ही पर्याप्त है, जब उसके हस्ताक्षर और संलिप्तता से करोड़ों की धोखाधड़ी की गई?

इन मामलों में पीड़ित पक्ष न्याय के लिए पुलिस थानों के चक्कर काटता है, लेकिन जमीन से जुड़े दस्तावेज ‘ठीक’ कराने के नाम पर महीनों उसे लटकाया जाता है। वहीं दूसरी ओर, भू-माफिया चुपचाप अपने दस्तावेज सेट कर सरकारी मशीनरी की नाक के नीचे कब्जा जमा लेते हैं। कई मामलों में देखा गया है कि पुलिस शिकायतों को “निजी विवाद” करार देकर एफआईआर दर्ज करने से भी बचती है।

जैसे ही मामला मीडिया या बड़े अधिकारियों तक पहुंचता है, तभी जाकर खानापूरी की कार्रवाई होती है। नतीजतन, अपराधी कानून की आँखों में धूल झोंकने में सफल रहते हैं और पीड़ित पक्ष को या तो समझौते के लिए मजबूर कर दिया जाता है या वर्षों तक कोर्ट-कचहरी के चक्कर में डाल दिया जाता है।
जमीनों की बढ़ती कीमतों ने इस अवैध उद्योग को सुनियोजित माफियातंत्र में तब्दील कर दिया है। सटीक टारगेटिंग, सरकारी तंत्र में गहरी पैठ और फर्जी दस्तावेजों की फैक्ट्री-इन सबका मिला-जुला परिणाम है कि इज्जतनगर और बारादरी जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में लोग अपनी ही संपत्ति पर कब्जा बरकरार रखने के लिए लड़ते नजर आते हैं।

क्या सरकार और प्रशासन अब भी आंखें मूंदे बैठा रहेगा? क्या जिला प्रशासन इस गठजोड़ को तोड़ने के लिए कठोर और पारदर्शी कदम उठाएगा? या फिर एक और गोलीकांड, एक और साजिश, और कुछ और निलंबन के बाद फिर सब कुछ भुला दिया जाएगा?

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