
- मृतक आश्रित में नियुक्ति को लेकर कोर्ट की टिप्पणी
प्रयागराज। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक आदेश में कहा है कि सरकारी प्राधिकरणों में काम कर रहे अधिकारी कानून की जानकारी नहीं रखते हैं। इस कारण अदालतों में अनावश्यक मुकदमों की बाढ़ आ जाती है और उनका रोस्टर अवरुद्ध हो जाता है। कोर्ट ने कहा कि इस तरह की लापरवाही न केवल अदालत के समय की बर्बादी है बल्कि आम नागरिकों को भी अनावश्यक रूप से मुकदमेबाजी के लिए मजबूर करती है।
न्यायमूर्ति मंजू रानी चौहान ने यह टिप्पणी उस मामले में की, जिसमें एक अशिक्षित याची ने अपनी ही संविदात्मक अनुकम्पा नियुक्ति को चुनौती देते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। कोर्ट ने कहा कि यह अनुभव में आया है कि कई मामलों में जिम्मेदार सरकारी अधिकारी न केवल वैधानिक प्रावधानों की अनदेखी करते हैं, बल्कि कानून की स्थापित स्थिति के विपरीत भी कार्य करते हैं। इसका सीधा परिणाम यह होता है कि ऐसे मामले अदालतों में पहुंचते हैं और न्यायिक प्रणाली पर अनावश्यक दबाव पड़ता है।
मामले के अनुसार याची के पिता की सेवा के दौरान मृत्यु हो गई थी। इसके बाद उसकी मां ने संबंधित प्राधिकरण को पत्र लिखकर पुत्र के बालिग होने पर उसे अनुकम्पा नियुक्ति प्रदान करने का अनुरोध किया।
वर्ष 2007 में याची को उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम में मृतक आश्रित कोटे के तहत कंडक्टर के पद पर नियुक्त किया गया। यह नियुक्ति संविदात्मक प्रकृति की थी। याची को अपनी नियुक्ति की प्रकृति और उससे संबंधित कानून की जानकारी नहीं थी। इसी कारण उसने कई वर्षों तक सेवा के बाद अपनी संविदात्मक नियुक्ति को चुनौती दी और इसके समर्थन में इलाहाबाद हाईकोर्ट के कुछ पूर्व निर्णयों का हवाला दिया।
वहीं, निगम की ओर से यह दलील दी गई कि याची इतने लंबे समय तक काम करने के बाद अपनी नियुक्ति को चुनौती नहीं दे सकता। हाईकोर्ट ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा कि राज्य और उसके उपक्रमों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत निष्पक्षता और तर्कसंगतता के साथ कार्य करें। विशेषकर तब, जब उन्हें ऐसे लोगों के प्रति अपने दायित्व निभाने हों, जो कानून और प्रक्रिया की बारीकियों से परिचित नहीं हैं। कोर्ट ने अर्बन इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट बीकानेर बनाम मोहन लाल मामले में सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी का भी उल्लेख किया, जिसमें कहा गया कि राज्य को अनावश्यक मुकदमेबाजी समाप्त करने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि इससे अदालतों में मामलों का अंबार लगता है और त्वरित न्याय में बाधा आती है।
कोर्ट ने कहा कि जब निगम स्वयं कानून की स्थिति से अवगत था तो उसकी जिम्मेदारी थी कि याची को इस प्रकार की नियुक्ति न देता। निगम की लापरवाही का खामियाजा याची को नहीं भुगतना चाहिए। कोर्ट ने निगम को मामले पर पुनर्विचार करने और कानून के अनुरूप आवश्यक कदम उठाने का निर्देश दिया।
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