
Sheikh Hasina : बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को ढाका के इंटरनेशनल क्राइम्स ट्रिब्यूनल-1 (ICT-1) द्वारा ‘क्राइम्स अगेंस्ट ह्यूमैनिटी’ के आरोप में सुनाई गई मौत की सज़ा ने भारत को एक ऐसे निर्णायक मोड़ पर ला खड़ा किया है, जहाँ उनकी जान का फ़ैसला अब अदालत नहीं, बल्कि भारत की विदेश नीति करेगी, आपको बता दें कि ये मामला 2024 के छात्र विद्रोह से शुरु हुआ, जिसने आरक्षण सुधारों के विरोध के रूप में जन्म लिया, लेकिन देखते ही देखते यह देशव्यापी आक्रोश और अराजकता में बदल गया। सैकड़ों लोगों की मौत हुई, हजारों घायल हुए, और स्थिति तब पलट गई जब बांग्लादेश की सेना ने न्यूट्रल स्टैंड ले लिया। सत्ता का ढाँचा चरमराया, और जो शेख हसीना कभी ढाका की सबसे शक्तिशाली आवाज़ थीं, उन्हें भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी। यह निर्वासन एक ‘नेगेटिव सिक्योरिटी शील्ड‘ के तहत हुआ, जहाँ उनकी पहचान गुप्त रखी गई, लेकिन सरकारी सुरक्षा सुनिश्चित की गई। अब सवाल ये है कि शेख हसीना को 30 दिन में सरेंडर नहीं किया गया तो क्या होगा? और उनके पास अब क्या विक्लप बचें हैं।
बता दें कि भारत में शरण लेने के कुछ ही महीनों बाद, ICT-1 ने हसीना को तीन प्रमुख आरोपों—प्रदर्शनकारियों पर एयरस्ट्राइक की मंज़ूरी, शहरी इलाकों में सैन्य निशाना साधने का आदेश, और व्यापक मानवाधिकार उल्लंघन—के आधार पर मौत की सज़ा सुनाई है। ट्रिब्यूनल ने निष्कर्ष दिया कि राज्य ने अपने नागरिकों को दुश्मन समझकर युद्ध-स्तर की कार्रवाई की। हालाँकि, हसीना और उनके बेटे सजीब वाज़ेद ने इस फैसले को तुरंत ‘कंगारू ट्रायल’, ‘राजनीतिक बदले की कार्रवाई’ और एक ‘अवैध न्यायाधिकरण’ का काम बताकर खारिज कर दिया। उनके मुताबिक, यह सब आवामी लीग को राजनीतिक रूप से समाप्त करने की एक सुनियोजित साजिश है।
यहीं पर भारत की कानूनी स्थिति स्पष्ट होती है। सबसे पहला और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ICT-1 का फैसला भारत में स्वयं-मान्य नहीं है। भारत का कानून विदेशी अदालतों के फैसलों को तब तक नहीं मानता, जब तक उनकी समीक्षा न हो। दूसरा, ICT-1 संयुक्त राष्ट्र (UN) के अधीन नहीं है। UN सिर्फ ICC या ICJ जैसे निकायों के फैसलों को लागू कराता है। इसका सीधा अर्थ है कि बांग्लादेश केवल कूटनीतिक दबाव बना सकता है, लेकिन UN के माध्यम से भारत को हसीना को सौंपने के लिए कानूनी रूप से बाध्य नहीं कर सकता। शेख हसीना कानूनी तौर पर भारत में स्वतंत्र हैं।
बांग्लादेश के विदेश मंत्रालय ने प्रत्यर्पण संधि का हवाला देते हुए शेख हसीना को तुरंत सौंपने की मांग की है। लेकिन भारत के लिए प्रत्यर्पण आसान नहीं है। भारत के पास प्रत्यर्पण रोकने के लिए तीन मजबूत आधार हैं, जिनमें से एक भी शर्त प्रत्यर्पण रोकने के लिए पर्याप्त है।
पहला – राजनीतिक प्रतिशोध – जिसमें भारत यह मान सकता है कि मौजूदा अंतरिम सरकार राजनीतिक बदले की भावना से काम कर रही है।
दूसरा – निष्पक्ष ट्रायल का अभाव – जिसमें अस्थिर राजनीतिक माहौल और आवामी लीग पर लगे प्रतिबंध निष्पक्ष सुनवाई की गारंटी नहीं देते।
तीसरा – मौत की सज़ा का जोखिम- जिसमें मानवाधिकारों की अपनी प्रतिबद्धताओं के तहत, भारत उन मामलों में प्रत्यर्पण से इनकार कर सकता है, जहाँ अभियुक्त को मृत्युदंड का सामना करना पड़ता है।
इन तीनों कारणों के चलते, भारत का प्रत्यर्पण से इनकार करना पूरी तरह से वैध और अपेक्षित होगा।
भारत का अंतिम फैसला क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को प्रभावित करेगा। यदि भारत हसीना को सौंपता है, तो अवामी लीग समर्थकों में गहरा भारत-विरोध पैदा होगा, और दक्षिण एशिया में भारत की छवि एक ‘पड़ोसी की राजनीति बदलने वाले देश‘ के रूप में बनेगी। सबसे बड़ा रणनीतिक खतरा यह है कि कूटनीतिक तनाव के चलते बांग्लादेश चीन की ओर झुक सकता है, जिससे बंगाल की खाड़ी में चीन का प्रभाव बढ़ेगा, जो भारत की सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौती है। दूसरी ओर, यदि भारत उन्हें शरण जारी रखता है, तो उसे अंतरिम सरकार से सीधे टकराव और सीमा सहयोग पर संभावित असर का सामना करना पड़ेगा।… भारत के पास तीन रणनीतिक रास्ते हैं- साइलेंट एसाइलम- यानि शरण जारी रखना और प्रत्यर्पण पर चुप्पी साधना।..दूसरा- ह्यूमन राइट्स शील्ड यानि मानवाधिकारों और मौत की सज़ा के जोखिम का हवाला देते हुए स्पष्ट रूप से प्रत्यर्पण से इनकार करना।..तीसरा..कंडीशनल एक्स्ट्रैडिशन यानि फांसी की सज़ा हटाकर, निष्पक्ष अंतरराष्ट्रीय ट्रायल की शर्त रखना।
खैर शेख हसीना का भविष्य अब ढाका नहीं, बल्कि दिल्ली की कूटनीतिक मेज पर लिखा जाएगा। यह सिर्फ एक व्यक्ति का कानूनी मामला नहीं है, बल्कि यह वह क्षण है जहाँ कानून, कूटनीति और क्षेत्रीय शक्ति एक-दूसरे को चुनौती दे रहे हैं, और भारत की साख तथा क्षेत्रीय स्थिरता दाँव पर लगी है।















