स्वीपिंग मशीनों से चमकता लखनऊ, पर रोजगार पर छाई धूल

Lucknow : सड़कों पर पिछले कुछ महीनों से स्वीपिंग मशीनों का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है। हाल ही में लखनऊ नगर निगम (एलएमसी) ने 70 मशीनों से 3000 किलोमीटर सड़कों की सफाई का दावा किया है। लेकिन इन मशीनों के फायदे और नुकसान क्या हैं, यह विचार का विषय है। एक ओर जहां ये मशीनें शहर को साफ-सुथरा बनाने और सफाई की गति बढ़ाने में मददगार साबित हो रही हैं, वहीं दूसरी ओर ये रोजगार छीनने, धूल उड़ाने और रखरखाव की दिक्कतों के कारण समाज में असंतोष भी बढ़ा रही हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि ये मशीनें शहरी सफाई का भविष्य हैं, लेकिन इनके दुष्प्रभावों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

रोड स्वीपिंग मशीनें, खासकर वैक्यूम और रीजेनेरेटिव एयर प्रकार की, शहरी क्षेत्रों में धूल और कचरे को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करती हैं। भारत में राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (NCAP) के तहत इनका उपयोग बढ़ा है, जहां ये सड़कों से उड़ने वाली धूल को कम करके वायु प्रदूषण घटाती हैं। लखनऊ में हाल ही में तैनात की गई नई इलेक्ट्रॉनिक और IoT-सक्षम मशीनें दिन में 40 किलोमीटर तक सड़क साफ करती हैं, जो मैन्युअल सफाई से कहीं अधिक कुशल है। इससे शहर की सुंदरता बढ़ती है, यातायात सुरक्षा में सुधार होता है और जल प्रदूषण कम होता है, क्योंकि कचरा नालियों में नहीं बहता। विशेषज्ञों के अनुसार, ये मशीनें लागत-प्रभावी हैं और लंबे समय में रखरखाव की लागत भी कम करती हैं। इनके इस्तेमाल से शहर की स्वच्छता रैंकिंग में सुधार की संभावना है। लखनऊ, जो वर्तमान में स्वच्छ सर्वेक्षण में 44वें स्थान पर है, इन मशीनों से अपनी रैंकिंग बेहतर करने की उम्मीद कर रहा है।

हालांकि, इन मशीनों की कई सीमाएं भी हैं। ये केवल धूल हटाती हैं, लेकिन कूड़ा, गुटखे की पिक, जानवरों का मल या बड़े कचरे को नहीं उठा पातीं। लखनऊ में शिकायतें हैं कि मशीनें सड़क के केवल एक तरफ सफाई करती हैं, जबकि फुटपाथ और डिवाइडर छूट जाते हैं। यदि मशीन वैक्यूम आधारित नहीं होती, तो ब्रश से धूल उड़ती है, जिससे हवा में प्रदूषण बढ़ता है। धूल को दबाने के लिए पानी का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन इससे पानी की बर्बादी होती है और सूखने के बाद धूल फिर उड़ने लगती है। इनके रखरखाव की समस्या भी बड़ी है ईंधन, पानी और स्पेयर पार्ट्स की लागत अधिक है। साथ ही, संकीर्ण गलियों में इनका इस्तेमाल मुश्किल है, हालांकि अब उनकी छोटी मशीनें भी विकसित की जा रही हैं।

इन मशीनों को लेकर समाज की सबसे बड़ी शिकायत रोजगार छिनने की है। मैन्युअल सफाई कर्मियों, जो अधिकतर गरीब वर्ग से हैं, उनकी जगह मशीनों ने ले ली है, जिससे बेरोजगारी बढ़ रही है। लखनऊ में सफाई एजेंसियों पर जुर्माने लगाए जा रहे हैं, लेकिन सफाई कर्मियों को वेतन देरी से मिलता है और बारिश में भी काम करना पड़ता है। सोशल मीडिया पर लोग मशीनों के खिलाफ विरोध जता रहे हैं। कई बार मशीनें ट्रैफिक में बाधा बनती हैं, शोर करती हैं और सड़कों को गीला करके दुर्घटनाओं का खतरा बढ़ाती हैं। इसके अलावा, ये मशीनें अमीर इलाकों में ज्यादा इस्तेमाल होती हैं, जबकि गरीब क्षेत्रों में अभी भी मैन्युअल सफाई ही जारी है, जिससे असमानता बढ़ रही है। स्वास्थ्य प्रभाव भी चिंता का विषय हैं सफाई कर्मियों में मस्कुलोस्केलेटल डिसऑर्डर (MSD) की समस्या बढ़ रही है, हालांकि मशीनें कुछ हद तक जोखिम को कम करती हैं।

इन मशीनों का एक प्रमुख सकारात्मक प्रभाव वायु गुणवत्ता में सुधार के रूप में देखा जा रहा है। रायबरेली और बहराइच जैसे जिलों में, जहां NCAP के तहत सफाई अभियान चलाए गए, वहां इसका असर दिखाई दिया। लखनऊ में सफाई पर करीब 600 करोड़ रुपये खर्च किए जा रहे हैं, जिससे शहर को नेट ज़ीरो वेस्ट बनाने की दिशा में काम हो रहा है। लेकिन इसके नकारात्मक प्रभावों में बेरोजगारी, संसाधनों की बर्बादी और अधूरी सफाई जैसी समस्याएं शामिल हैं, जो स्वच्छ सर्वेक्षण में शहर की रैंकिंग को प्रभावित कर रही हैं।

विशेषज्ञों का सुझाव है कि मशीनों के साथ-साथ पावर वॉशिंग और नागरिक जागरूकता को भी बढ़ावा देना जरूरी है। नगर निगम अधिकारियों का कहना है कि मशीनें सफाई को आधुनिक बना रही हैं, लेकिन नागरिकों से अपील है कि वे सड़कों पर कचरा न फेंकें।

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