
राजस्थान की सियासत में संगठन की बात हो, उसमें पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का नाम न आए, ऐसा हो नहीं सकता। गहलोत फिर एक बार अपने पुराने अंदाज में लौटे हैं, सधे हुए शब्दों में, लेकिन नपे-तुले निशाने के साथ। कांग्रेस के संगठन सृजन अभियान के तहत जिलाध्यक्षों की नियुक्ति प्रक्रिया पर उन्होंने जो कहा, वह सिर्फ ललकार नहीं थी, बल्कि पार्टी संस्कृति के उस मूलमंत्र की याद दिलाने जैसा था- कि संगठन व्यक्ति से बड़ा है।
गहलोत ने साफ कहा कि हाईकमान चाहता है कि जिलाध्यक्षों पर निष्पक्ष फीडबैक आए। कोई नेता पंचायती न करे, न सिफारिश दे, न पर्यवेक्षक को अपनी भावना बताए। यह बयान जितना सीधा दिखता है, उतना ही गहरा है। उसमें गहलोत का वह अनुभव झलकता है, जो उन्होंने दशकों तक पार्टी संगठन की नस-नस में काम करके पाया है। उन्होंने मानो यह चेतावनी दी कि कांग्रेस को आगे बढ़ाना है, तो गुटबाजी से ऊपर उठना होगा।
पूर्व सीएम का कहना था कि जिलाध्यक्ष चाहे किसी भी गुट से क्यों न हो, वह सभी को साथ लेकर चले। गहलोत ने यह भी कहा कि यदि कोई दूसरा बनता है, तो उसे दिल से वेलकम करें। वह चाहे मेरे खिलाफ ही क्यों न हो, उसका साथ देना संगठन की मजबूती है। यही गहलोत की वह राजनीतिक परिपक्वता है, जिसने उन्हें बार-बार संकट में कांग्रेस का संकटमोचक बनाया। उन्होंने खुलकर यह भी कहा कि कोई प्रस्ताव पास नहीं होना चाहिए, जिसमें किसी नेता को अधिकार दे दिया जाए कि वही नाम तय करें। यह गहलोत की उस सोच की झलक है, जिसमें पारदर्शिता और लोकतंत्र सर्वोपरि हैं— कि नेतृत्व तय करे, न कि लॉबी।
गहलोत ने अपने अनुभवों की मिसाल भी दी। उन्होंने कहा, “मैं खुद जोधपुर में जिलाध्यक्ष बना था, 1977 में। शिवचरण माथुर और हीरालाल देवपुरा जैसे सीनियर नेताओं के पर्यवेक्षण में। तब भी सीनियरों को लगता था कि यह तो कल का बच्चा है। लेकिन नए जिलाध्यक्ष का धर्म है कि वह सबको साथ लेकर चले।”
यह भी पढ़े : शादी से किया इनकार तो युवती को मार दी गोली, कोर्ट ने आरोपी को 3 दिन की पुलिस रिमांड पर भेजा















