
New Delhi : चार दशकों बाद भी शाह बानो का नाम भारतीय न्याय व्यवस्था और महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई का प्रतीक बने हुए है। 1985 की ये ऐतिहासिक सुप्रीम कोर्ट फैसला न केवल मुस्लिम महिलाओं के भरण पोषण और अधिकारों को मजबूत करने वाला था, बल्कि समान नागरिक संहिता (UCC) की बहस को भी हवा दे गया।
आज हम इस केस की 40वीं वर्षगांठ मना रहे हैं, तो बॉलीवुड की दुनिया में एक नया अध्याय जोड़ने जा रहा है। यामी गौतम और इमरान हाशमी की आगामी फिल्म हक़ इस केस से प्रेरित है जो 7 नवंबर 2025 को सिनेमाघर में रिलीज होगी या फिल्म न केवल कानूनी जंग को दर्शाएगी बल्कि उस दौर की सामाजिक राजनीतिक उथल-पुथल को भी उजागर करेगी।

शाह बानों का संघर्ष: एक साधारण महिला की असाधारण जंग
1972 में इंदौर मध्य प्रदेश में शाह बानो बेगम की शादी एक संपन्न वकील मोहम्मद अहमद खान से हुई। पांच बच्चों की मां शाह बानो ने 14 साल बाद अपने पति की दूसरी शादी देखी वर्षों तक दोनों पत्नियों के साथ रहने के बाद अहमद खान ने 62 वर्षीय शाह बानो को त्याग दिया और केवल 200 रूपये मासिक देने का वादा किया। लेकिन अप्रैल 1978 में यह राशि बंद हो गई। मजबूरन, शाह बानो ने CRPC की धारा 125 के तहत 500 रूपये भरण पोषण के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
नवंबर 1978 में अहमद खान ने उन्हें ट्रिपल तलाक दे दिया और दावा किया कि इस्लामी कानून के तहत वे अब उनकी जिम्मेदारी से मुक्त हैं। उन्होंने केवल 5,400 रूपये (महर के रूप में) दिए। स्थानीय अदालत ने खान को मासिक 25 रूपये देने का आदेश दिया, लेकिन शाह बानो की अपील पर मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने इसे बढ़ाकर 179.20 रुपए कर दिया। सुप्रीम कोर्ट पहुंचे मामले में खान ने तर्क दिया की इस्लामी कानून में चार शादियां अनुमत हैं, इसलिए उनकी दूसरी शादी वैध है।
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला : धर्मनिरपेक्षता की जीत
5 अप्रैल 1985 को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया धारा 125 एक धर्मनिरपेक्ष प्रावधान है जो सभी धर्मों पर लागू होता है। कोर्ट ने कहा कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला को ‘पत्नी’ की श्रेणी में शामिल किया जाएगा, जब तक वह पुनः विवाह न करे। अगर व्यक्तिगत कानून (जैसे मुस्लिम पर्सनल लॉ) और धारा 125 में टकराव हो, तो धर्मनिरपेक्ष कानून को प्राथमिकता मिलेगी। महर को भारत पोषण से अलग रखा गया, हालांकि इसे राशि तय करने के आधार पर विचार किया जा सकता है। कोर्ट ने खान को मासिक 179.20 रुपए देने का आदेश दिया।
यह फैसला अनुच्छेद 44 के निर्देशक सिद्धांतों को मजबूत करने वाला था, जो UCC की वकालत करता है। कोर्ट ने जोर दिया कि मुस्लिम पति की जिम्मेदारी इद्दत (तीन माह )तक सीमित नहीं, बल्कि पत्नी की असमर्थता के दौरान स्थायी है।

प्रभाव : राजनीतिक तूफान और कानूनी सुधार
फैसले ने पूरे देश में हंगामा मचा दिया। मुस्लिम समुदाय के कुछ वर्गों ने इसे धार्मिक हस्तक्षेप बताया, जबकि महिलावादी संगठनों ने इसे स्वागत किया। राजीव गांधी सरकार ने इसका विरोध करने वालों को शांत करने के लिए 1986 में ‘मुस्लिम महिला(तलाक पर आरक्षण) अधिनियम’ पारित किया, जो भरण पोषण इद्दत तक सीमित कर देता था । इसमें वक्फ बोर्ड से सहायता का प्रावधान था।
शाह बानो की वकील डैनियल लतीफी ने इस कानून को चुनौती दी। 2001 में डैनियल लतीफी बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अधिनियम को वैध माना, लेकिन स्पष्ट किया कि भरण पोषण इद्दत तक सीमित नहीं हो सकता। ये फैसला UCC बहस को आज भी प्रासंगिक बनाए रखता है।
‘हक़’: शाह बानो की कहानी को नई जिंदगी
अब यह ऐतिहासिक जंग सिल्वर स्क्रीन पर उतर रही है। सुपर्ण एस. वर्मा के निर्देशन से बनी ‘हक’ फिल्म शाह बानो केस से प्रेरित है। यामी गौतम धर शाह बानो की भूमिका में हैं, जबकि इमारन हाश्मी उनके पति अहमद खान के किरदार में नजर आएंगे। टीजर में कोर्टरूम की तीखी बहस और भावनात्मक संघर्ष दिखाया गया है, जो 1978 से शुरू होकर सुप्रीम कोर्ट तक जाता है।
फिल्म ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ जैसी कोर्टरूम ड्रामा की परंपरा को आगे बढ़ती है। वर्मा कहते हैं ये फिल्म न केवल कानूनी लड़ाई है, बल्कि महिलाओं के हक की आवाज है। रिलीज से पहले टीजर ने सोशल मीडिया पर तहलका मचा दिया है, जहां दर्शक UCC और महिलाओं के अधिकारों पर बहस कर रहे हैं।
क्यों देखें हक़?
प्रेरणा स्रोत : असली शाह बनो की कहानी, जो लाखो महिलाओ को प्रेरित करती है।
स्टार कास्ट : यामी गौतम की शक्तिशाली अदाकारी और इमरान का गहरा किरदार।
आज के UCC बहस के बिच, यह फिल्म विचारोत्तेजक साबित होगी।
शाह बनो का केस साबित करता है की न्याय कभी पुराना नहीं होता है।
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