
गुजरात हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण आदेश में कहा है कि न्यायपालिका में जजों की जिम्मेदारी केवल फैसले सुनाना ही नहीं है, बल्कि उनका व्यवहार, प्रतिष्ठा और ईमानदारी भी बहुत अहम है। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि यदि किसी जज के सर्विस रिकॉर्ड में केवल एक ही नकारात्मक टिप्पणी हो या उनकी ईमानदारी पर संदेह हो, तो यह सार्वजनिक हित में उनके जबरन रिटायरमेंट के लिए पर्याप्त हो सकता है।
हाईकोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में किसी को शो-कॉज नोटिस देना जरूरी नहीं है, क्योंकि यह कदम सार्वजनिक हित में लिया गया है और इसे सजा नहीं माना जाएगा।
मामला क्या है?
यह आदेश जज जे. के. आचार्य के मामले में आया है, जिन्होंने नवंबर 2016 में हाईकोर्ट, राज्य सरकार और राज्यपाल द्वारा जबरन रिटायर किए जाने के बाद अपनी आपत्तियां दायर की थीं। उस समय, हाईकोर्ट की नीति थी कि 50 और 55 वर्ष की उम्र में जजों का मूल्यांकन किया जाए और जिनकी कार्यकुशलता संतोषजनक नहीं हो, उन्हें रिटायर कर दिया जाए।
हाईकोर्ट ने माना कि पब्लिक इंटरेस्ट में जबरन रिटायरमेंट कोई सजा नहीं है, इसलिए प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन आवश्यक नहीं है। इसके लिए नोटिस देना भी जरूरी नहीं है। कोर्ट ने यह भी कहा कि हाईकोर्ट की एडमिनिस्ट्रेटिव और स्टैंडिंग कमेटी की सिफारिशों को तभी हस्तक्षेप किया जा सकता है जब उसमें स्पष्ट गैरकानूनी काम या प्रक्रिया का उल्लंघन हो।
हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का हवाला देते हुए कहा कि यदि किसी जज का व्यवहार, प्रतिष्ठा या आचरण मानकों के खिलाफ पाया जाए, तो या तो उन्हें अनुशासनात्मक कार्रवाई का सामना करना पड़ेगा या सार्वजनिक हित में रिटायर किया जा सकता है।
इस फैसले से स्पष्ट हो गया है कि जजों के प्रदर्शन और आचरण की निगरानी कड़ी है। सार्वजनिक हित में हाईकोर्ट बिना किसी अतिरिक्त सबूत के भी यदि किसी जज में कमी देखता है, तो उन्हें रिटायर किया जा सकता है। यह फैसला पिछले साल के उस सिद्धांत को भी मजबूत करता है जिसमें कमजोर प्रदर्शन कर रहे जजों को जबरन रिटायर करने का प्रावधान वैध माना गया था।
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