बहराइच: मनोरंजन और शिक्षा की साधन रही कठपुतली कला अब लुप्तप्राय

जरवलब,बहराइच: आधुनिक भारत में कठपुतलियों का उपयोग धीरे-धीरे खत्म हो गया, जबकि ये मनोरंजन का साधन तो थीं ही, शिक्षा जगत को बढ़ावा देने में भी कम कारगर नहीं थीं। जानकारों के अनुसार, 5वीं सदी ईसा पूर्व में भी इसकी गहरी जड़ें थीं। यही नहीं, मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में कठपुतलियों के अवशेष भी मिले थे, लेकिन अब यह कला पूरी तरह से लुप्त हो चुकी है।

जानकारों के अनुसार, कठपुतली कला भारत की एक पारंपरिक कला है, जिसमें कठपुतलियों का उपयोग करके कहानियां सुनाई जाती थीं। यह कला मनोरंजन और शिक्षा का एक महत्वपूर्ण साधन रही है। खासकर राजस्थान में कठपुतली कला में विभिन्न प्रकार की कठपुतलियां शामिल थीं, जैसे कि धागा कठपुतली, छाया कठपुतली, और दस्ताना कठपुतली। इस कला की प्राचीनता का यह स्पष्ट प्रमाण है।

तमिल शास्त्रीय कृति शिलप्पादिकारम में भी कठपुतली कला का उल्लेख मिलता है। इसके अलावा, कठपुतली कला का उपयोग पौराणिक कथाओं, लोककथाओं और सामाजिक संदेशों को व्यक्त करने के लिए किया जाता रहा है, जो अब केवल कल्पना मात्र रह गई है।

ऐसी बनाई जाती थीं कठपुतलियां
जरवल। कठपुतलियां लेदर, कागज़, प्लास्टिक या लकड़ी से बनाई जाती थीं। इनके हाव-भाव और आकार साफ दिखाने के लिए तेज प्रकाश व्यवस्था का इस्तेमाल किया जाता था। इसकी शुरुआत भारत और चीन में मानी जाती है। धागा या स्ट्रिंग कठपुतलियां भारत में विशेष रूप से लोकप्रिय थीं।

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