
बिहार की राजनीति और अपराध की मिलीभगत कोई नई बात नहीं है। बाहुबलियों का रसूख और सत्ता के गलियारों तक उनकी पहुंच ने राज्य को कई बार शर्मसार किया है। लेकिन 5 दिसंबर 1994 को जो हुआ, उसने न सिर्फ प्रशासन को झकझोर कर रख दिया, बल्कि पूरे देश में सनसनी फैला दी। इस दिन एक ईमानदार आईएएस अधिकारी, गोपालगंज के तत्कालीन जिलाधिकारी जी. कृष्णय्या की दिनदहाड़े हत्या कर दी गई। और इस हत्या में नाम आया – बाहुबली नेता आनंद मोहन का।
कौन थे जी. कृष्णय्या?
जी. कृष्णय्या मूल रूप से आंध्र प्रदेश के महबूबनगर (अब तेलंगाना) के रहने वाले थे। दलित समुदाय से आने वाले कृष्णय्या ने गरीबी और संघर्ष को नजदीक से देखा था। कुली पिता के बेटे होने के बावजूद उन्होंने पत्रकारिता, फिर लेक्चरर और क्लर्क की नौकरी के बाद 1985 में बिहार कैडर से आईएएस बने।
उनकी छवि एक जनपक्षधर, ईमानदार और ज़मीनी अफसर की थी। पश्चिम चंपारण से लेकर गोपालगंज तक उनकी पोस्टिंग रही और उन्होंने भूमि सुधारों से लेकर गरीबों की बेहतरी तक कई अहम कदम उठाए। लेकिन यही गोपालगंज उनकी अंतिम पोस्टिंग साबित हुई।
हत्या की पृष्ठभूमि: जब माफिया छोटन शुक्ला मारा गया
1994 के लोकसभा उपचुनाव और 1995 के विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र माफिया नेता छोटन शुक्ला, आनंद मोहन के नज़दीकी और भूमिहार-राजपूत एकता के प्रतीक के रूप में उभर रहा था। 4 दिसंबर की रात को केसरिया से लौटते वक्त मुजफ्फरपुर में छोटन की गोली मारकर हत्या कर दी गई।
इसके बाद पूरा इलाका उबल पड़ा। प्रदर्शन, तोड़फोड़ और आगजनी शुरू हो गई। 5 दिसंबर को छोटन के भाई भुटकुन शुक्ला शव के साथ वैशाली स्थित अपने गांव की ओर पैदल रवाना हुए। रास्ते में हजारों लोग इस शव यात्रा में शामिल होते चले गए। आनंद मोहन, अखलाक अहमद और अरुण सिन्हा जैसे नेता भी इस भीड़ का हिस्सा बने।
वह काली दोपहर: कैसे मारा गया एक जिलाधिकारी
शाम करीब 4 बजे, गोपालगंज के डीएम जी. कृष्णय्या एक कार्यक्रम से लौट रहे थे। उनकी लाल बत्ती लगी सरकारी एम्बैसेडर कार भीड़ के रास्ते में फंस गई। आनंद मोहन का भाषण प्रशासन के खिलाफ भीड़ को और उकसा चुका था।
जब भीड़ ने उनकी गाड़ी को घेरा, तो बॉडीगार्ड पर हमला हुआ। डीएम खुद उतरकर स्थिति संभालना चाहते थे, लेकिन भीड़ ने उन पर जानलेवा हमला कर दिया। उन्हें घसीटा गया, पीटा गया और फिर गोली मारी गई।
गवाही के अनुसार, आनंद मोहन ने भीड़ में भड़काऊ टिप्पणी की — “देखता क्या है भुटकुन, बदला ले लो!” और इसके बाद भुटकुन ने गोली चला दी। डीएम को फिर भीड़ के हवाले कर दिया गया। उन्हें पत्थरों और ईंटों से बुरी तरह कुचला गया। कुछ देर बाद अस्पताल में उनकी मौत हो गई।
कानूनी कार्रवाई और आनंद मोहन की सजा
इस बर्बर हत्या के बाद बिहार सरकार पर भारी दबाव बना। मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने खुद घटनास्थल का दौरा किया और सख्त कार्रवाई का भरोसा दिया।
6 दिसंबर 1994 को 36 लोगों के खिलाफ केस दर्ज हुआ, जिनमें आनंद मोहन, उनकी पत्नी लवली आनंद, भुटकुन शुक्ला, अखलाक अहमद और अरुण सिन्हा प्रमुख आरोपी थे।
2007 में निचली अदालत ने आनंद मोहन को दोषी पाया और उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई। उन पर भीड़ को भड़काने और हत्या के लिए उकसाने का आरोप सिद्ध हुआ।
फिर जेल से बाहर कैसे आए आनंद मोहन?
सालों जेल में रहने के बाद 2023 में बिहार सरकार ने नियमों में संशोधन कर ‘राज्य कर्मियों की हत्या के दोषियों को रिहाई से रोकने वाले प्रावधान’ को हटा दिया, जिसके बाद आनंद मोहन की रिहाई का रास्ता साफ हुआ। यह फैसला राजनीतिक रूप से विवादास्पद रहा और दलित संगठनों और प्रशासनिक सेवा संघों ने इसका विरोध भी किया।
इस तरह 29 साल बाद भी, एक दलित अफसर की हत्या के दोषी माने गए नेता आज न सिर्फ आज़ाद हैं, बल्कि सक्रिय राजनीति में भी दिखाई देते हैं।
न्याय की तलाश अधूरी
जी. कृष्णय्या की हत्या बिहार में राजनीति, अपराध और जाति व्यवस्था के खतरनाक गठजोड़ की एक बर्बर मिसाल है। एक ईमानदार अफसर, जिसने गरीबों के लिए ज़िंदगी लगाई — उसे भीड़ के हवाले इसलिए कर दिया गया क्योंकि वह ‘प्रशासन’ का प्रतिनिधि था।
आज भी यह सवाल ज़िंदा है कि क्या एक आईएएस अफसर की हत्या का न्याय वाकई पूरा हुआ? क्या सिस्टम ने अपराधियों को सजा दी — या फिर राजनीति ने एक बार फिर अपराध को पनाह दी?