देह की नुमाइश ने थाम दी सिनेमा घरों में परिवार वालों की भीड़

आज भी याद आता है सिनेमा का वो दौर जब हम अपने माता – पिता के साथ बैठ कर उस दृश्व व कहानी का आनंद एक साथ लिया करते थे , जहां प्रेम के साथ – साथ ज्ञान का भंडार भी परोसा जाता था. लेकिन जैसे – जैसे वक्त गुजरता गया वैसे – वैसे सिनेमा की परिभाषा बदलती गई. एक समय था जब सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि समाज का आईना हुआ करता था. जहां परदे पर चल रही कहानी हर दर्शक के दिल की आवाज़ बन जाती थी। पचास के दशक से लेकर अस्सी के दशक तक, भारतीय सिनेमा का एक स्वर्णिम काल था। भारतीय सिनेमा की शुरुआत “राजा हरिश्चंद्र” (1913) जैसी धार्मिक और नैतिक फिल्मों से हुई थी, जहाँ आदर्शवाद और नैतिकता को महत्व दिया जाता था। उस दौर में कहानियाँ इंसानियत की थीं, रिश्तों की थीं, और ज़िन्दगी की सच्चाइयों को छूती थीं। जैसे – ‘मदर इंडिया’ में नरगिस का त्याग, ‘अनुपमा’ में नूतन का दर्द। ‘शोले’ में दोस्ती की मिसाल, उस समय फिल्मों के संवाद गूंजते थे और गीत हम सभी को रुला जाते थे।

उस दौर के कुछ ऐसे कलाकार हुआ करते थे जो अपने किरदारों को जीते थे जैसे – दिलीप कुमार, बलराज साहनी, मीना कुमारी, और संजीव कुमार. उन्हें ग्लैमर की ज़रूरत नहीं थी, उनकी आँखों में पूरी कहानी उतर आती थी।

वहीं 90 के दशक के बाद भारतीय सिनेमा में एक बड़ा बदलाव देखा गया। वैश्वीकरण, उपभोक्तावाद और इंटरनेट की क्रांति ने फिल्मों को केवल ‘मनोरंजन’ के नाम पर बिकाऊ बना दिया। फिल्म निर्माताओं ने यह समझा कि सेक्स, हिंसा, और उत्तेजक दृश्य ज्यादा दर्शकों को आकर्षित करते हैं। फलस्वरूप, कहानी और अभिनय की गुणवत्ता को दरकिनार कर दिया गया और फिल्में केवल दृश्य प्रभावों और बोल्ड कंटेंट पर आधारित होने लगीं।

आज का सिनमा तकनीकी में तेज है समय बदला, तकनीक बढ़ी, कैमरे 4K हो गए, लेकिन कहानियाँ खोखली होने लगीं। आज की फिल्मों में हाई ग्लैमर गानों में बिकनी में नाचती अभिनेत्रियाँ दिखाई देती हैं , डबल मीनिंग वाले डायलॉग का इस्तेमाल किया जाता है ताकि फिल्म को जबरन मसालेदार बनाया जाए। अब सिनेमा में कहानियाँ कम, आइटम सॉन्ग ज़्यादा हैं। ज़्यादातर फिल्में एक फॉर्मूले पर चलती हैं एक्शन, रोमांस, डांस और थोड़ा बहुत ड्रामा।

जहां पहले इशारों में प्यार बयां होता था, वहां अब सब कुछ पर्दे पर परोसा जाता है – बिना सोचे कि कौन देख रहा है।”हालांकि हर अंधेरे में रोशनी की एक किरण होती है। आज भी कुछ फिल्में और कलाकार ऐसे हैं जो सिनेमा की खोई गरिमा को लौटाने की कोशिश कर रहे हैं। जैसे बधाई हो’, ‘मसान’, ‘सर’, ‘द केरला स्टोरी’ जैसी फिल्मों की झलकियाँ. पंकज त्रिपाठी, विक्की कौशल, नवाज़ जैसे प्रतिभाशाली कलाकारों की ईमानदार अदाकारी

ये भी पढ़े – क्या अब KBC 17 सलमान खान करेंगे होस्‍ट? अमिताभ बच्‍चन ने किया खुलासा

पहले सिनेमा सामाजिक बदलाव का जरिया था। आज कई बार यह सिर्फ कमाई का साधन बन कर रह गया है। इसलिए फिल्म निर्माता बिना सोचे समझे कुछ ऐसी फिल्में बना देते हैं जिसे आप अपने परिवार व बच्चों के साथ मिलकर नही देख सकते. जैसे की मर्डर -2 (मलाइका शेरावत अश्लील सीन ) पठान ( दीपिका पादुकोण ) जिस्म -2 ( सनी लियोनी ) एनिमल ( तृप्ती डिमरी ) इस तरह की तमाम फिल्में बनाई गई हैं जो असल में सिनेमा को सिर्फ अश्लीलता का बाजार प्रर्दशित करता है

खबरें और भी हैं...

अपना शहर चुनें

इस दिन नाखून कांटने से बचें क्या आप भी मालामाल होने की रखते हैं ख्वाहिश शुक्रवार को कैंसिल रहेगी भागलपुर – हंसडीहा पैसेंजर ट्रेन कन्नड़ लेखिका बानू मुश्ताक ने रचा इतिहास दिल्ली में बारिश ने मचाई भारी तबाही