साठा सिंडिकेट का खेल : मिलर्स-दुकानदारों की मिलीभगत से पनप रही ज़हरीली खेती


पूरनपुर,पीलीभीत।“पानी तो अब जून में ही बोरिंग से खींचना शुरू हो गया, लेकिन साहब कहां सुनते हैं… वो तो दफ्तरों में एसी में बैठे हैं। पूरनपुर तहसील क्षेत्र के एक किसान की ये चुभती हुई बातें उस समय दर्ज हुईं जब वह अपने खेत की नर्सरी में साठा धान की क्यारियों की ओर इशारा कर रहा था। साथ ही तहसील कलीनगर क्षेत्र के खेतों में इस वक़्त हरियाली तो लहलहा रही है, लेकिन यह हरियाली भविष्य के जल संकट, मिट्टी की उर्वरा शक्ति के ह्रास और प्रशासनिक लापरवाही का काला साया भी समेटे हुए है।

साठा धान: आदेशों की धज्जियों का दस्तावेज़

उत्तर प्रदेश शासन ने साठा धान की खेती को स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित किया है। इसका मुख्य कारण यह है कि यह फसल गर्मी के चरम समय में बोई जाती है — जब न तो बारिश होती है, न ही तालाबों या नदियों में जल बचा होता है।
इस धान की सिंचाई हर तीसरे दिन भरपूर पानी से करनी होती है, जो भूगर्भ जल पर निर्भर होती है। पंपिंग सेट, ट्यूबवेल और मोटरों के जरिए यह पानी खींचा जाता है, जिससे भूजल स्तर तेजी से गिरता है।

कथित रूप से “तीव्र पकने वाला” यह धान असल में 75-90 दिन लेता है। जल संकट का संकट अब धरातल पर दिखने लगा है — बोरिंग सूख रहे हैं और गर्मी की शुरुआत में ही पानी की होड़ मच चुकी है।

‘साठा सिंडिकेट’: मिलर्स, दुकानदार और अफसरों की साज़िश

प्रशासन के आदेश हैं कि न कोई मिल साठा खरीदेगी, न कोई दुकानदार इसकी दवा बेचेगा। लेकिन हकीकत? मिलर्स पहले ही किसानों से एडवांस सौदे कर चुके हैं। रेट 1200-1300 रु/कुंतल तक तय कर दिए गए हैं। पेस्टीसाइड और खाद विक्रेता खुलेआम वही दवाएं और उर्वरक बेच रहे हैं, जो साठा के लिए खास हैं। और कृषि विभाग? अब तक न कोई लाइसेंस रद्द, न कोई जांच, न कोई रिपोर्ट।

यह गठजोड़ ही असली ‘साठा सिंडिकेट’ है — जो हर उस चीज़ को कुचल रहा है, जो नीति, प्रकृति और भविष्य से जुड़ी है।

विशेषज्ञों की मानें तो गोमती नदी का अस्तित्व भी इसी साठा की बलि चढ़ चुका है।
शाहजहांपुर से लखनऊ तक, नदी के दोनों तटों पर जबरदस्त भूजल दोहन के साथ साठा धान रोपा जा रहा है।
नतीजा — गोमती की कोख सूख गई। नदी अब सिर्फ मानचित्र पर ज़िंदा है।

ज़हर घोलती फसल — मिट्टी और मानव दोनों पर हमला

साठा की खेती में भारी मात्रा में हाईपावर रासायनिक खाद, कीटनाशक और हर्बिसाइड का इस्तेमाल किया जाता है। इससे मिट्टी की जैविक क्षमता (Organic Matter) लगभग समाप्त हो गई है। कृषि वैज्ञानिकों का साफ कहना है —
“इस खेती से ज़मीन बंजर बन रही है। खेतों का भविष्य उजड़ रहा है।”

इतना ही नहीं, जमीन में बनी रहने वाली नमी के कारण जब मुख्य धान की फसल आती है, तो उस पर कीटों का हमला दुगनी रफ्तार से होता है।
किसानों को और भी तेज़ कीटनाशक इस्तेमाल करने पड़ते हैं। यही कारण है कि अब खेत से निकला चावल मानकविहीन और जहरीला हो रहा है — जो सीधे तौर पर मानव स्वास्थ्य के लिए जानलेवा बनता जा रहा है।

प्रशासन ने खुद दिए थे आदेश, फिर पालन क्यों नहीं?

पिछले वर्ष जब साठा का रकबा बढ़ा, तब तत्कालीन डीएम ने दोबारा प्रतिबंध लागू किया।
जनपद के समस्त उर्वरक विक्रेताओं को निर्देशित किया गया कि वे इस फसल के लिए कोई भी उत्पाद न बेचें। साथ ही, सभी राइस मिलर्स को साठा धान की खरीद से मना किया गया।

अब तक प्रशासन के पास कोई ठोस जवाब नहीं।

किसानों की नाराज़गी — “हम आदेश मानें और बाकी मस्त रहें?”

कई किसानों ने जिलाधिकारी के आदेश का पालन करते हुए साठा न बोने का निर्णय लिया।
लेकिन वे अब प्रशासन पर सवाल उठा रहे हैं —
“अगर पालन नहीं होना तो आदेश क्यों? क्या हम ही मूर्ख हैं जो नियम मानें?”

यह नाराज़गी अब व्यवस्था पर अविश्वास में बदल रही है। यह अब सिर्फ खेती नहीं, नीतिगत पाप है

साठा अब एक नीतिगत विफलता बन चुका है। यह जल संकट, मिट्टी की तबाही, नदियों का अंत और मानवीय स्वास्थ्य पर हमला — सबका स्रोत बन गया है।

अधिकारियों की बात
पंकज कुमार अपर जिला कृषि अधिकारी पीलीभीत का कहना है कि किसानों को प्रतिबंधित धान न लगाने के लिए जागरूक किया जा रहा है, साथ ही उर्वरक बिक्रेता को कार्रवाई की चेतावनी दी गई है, किसानों को खाद बीज उपलब्ध कराने पर कार्रवाई की जायेगी।

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