लोकरंग महोत्सव: विज्ञान में धर्म व धर्म के अंदर विज्ञान तलाशना गलत

  • लोक संस्कृति वंचित वर्गों की संस्कृति : दिनेश कुशवाह
  • लोकरंग आमजन का महायज्ञ: डॉ रामनरेश राम

फाजिलनगर, कुशीनगर। जाने माने वैज्ञानिक और शायर गौहर रज़ा ने कहा कि आज विज्ञान पर आक्रमण बढ़ रहा है। नफ़रत और अंधविश्वास को फैलाकर समाज में विभाजन पैदा किया जा रहा है। इस खतरे को समझ कर उसका मुक़ाबला करने की जरूरत है। वह जोगिया जनूबी पट्टी में आयोजित लोकरंग आयोजन के दूसरे दिन “ मिथक, लोक संस्कृति और विज्ञान” विषय पर आयोजित गोष्ठी में बतौर मुख्य वक्ता बोल रहे थे।

उन्होंने कहा कि धर्म के अंदर विज्ञान तलाशना और विज्ञान के अंदर धर्म तलाशना गलत है। विज्ञान आज का सच है और वह नए-नये खोजों से अपने को आगे बढ़ाता रहता है। विज्ञान में बदलाव की गुंजाइश रहती है, जबकि धर्म में बदलाव या उसमें कही बातों पर सवाल उठाने से संकट पैदा होता है। उन्होंने संस्कृति के धरातल पर विज्ञान को समझने पर जोर देते हुए कहा कि मिथकों का बहुत पुराना इतिहास रहा है। हमारे परंपराओं में प्रगतिशील तत्व भी हैं, जिन्हें हमें अपनाना चाहिए। संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कवि प्रो. दिनेश कुशवाह ने कहा कि अभिजन संस्कृति ने लोकसंस्कृति की उपेक्षा की है और उसका उपहास किया है। अभिजनों ने लोक संस्कृति को गँवारों की संस्कृति और ग्राम्य संस्कृति कहा है। लोक संस्कृति वंचित वर्गों की संस्कृति है। लोक संस्कृति में वर्चस्व का प्रतिरोध है। इसलिए उसे संवर्धित करते हुए उसे जनसंस्कृति तक ले जाने की कोशिश करनी है।

उन्होंने कहा कि हर संस्कृति में मिथक हैं। मिथकों की दुनिया के पीछे सत्ता वर्ग के स्वार्थ होते हैं और वे स्वार्थों के लिए इसको परिवर्तित भी करते रहते हैं। गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के एसोसियेट प्रोफेसर डा.रामनरेश राम ने कहा कि लोकरंग आम जन का महायज्ञ है। इसकी निरंतरता की प्रतिबध्दता आश्वस्त करती है कि जन संस्कृति का संवर्धन होगा। दरसअल लोक संस्कृति का निर्माण कृषि जीवन से होता है, और यह मनुष्य के विकास के चरण को दिखाता है। जब मनुष्य प्रकृति के रहस्यों को नहीं जान सकता था तो उसने प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण करके मिथकों की रचना की। मिथक में मनुष्य की इतिहास चेतना व्यक्त होती है। विज्ञान और तकनीक ने लोक संस्कृति के अस्तित्व के सामने चुनौती खड़ी कर दी है। लोक संस्कृति के संवर्धन का कहीं यह तो अर्थ नहीं है कि हम उसके हर रूप से चिपके रहने का उपक्रम कर रहे हैं। क्योंकि लोक संस्कृति में भेदभाव वाले मूल्य भी हैं। जिस तरह विज्ञान की उपलब्धियां बढ़ रही हैं, लोक संस्कृति के विभिन्न रूपों का एकरूपीकरण भी हो रहा है। विज्ञान कभी भी अपने आप में जनकल्याण के लिए नहीं था। बल्कि यह इस बात पर निर्भर करता रहा है कि विज्ञान को नियंत्रित करने वाले लोग कैसे हैं। वरिष्ठ पत्रकार मनोज कुमार सिंह ने कहा कि संस्कृति के क्षेत्र में आत्मसात्मीकरण, संस्कृतिकरण और विसंस्कृतिकरण की चर्चा करते हुए कहा कि जिस विचारधारा ने मिथकों की रचना, पुनर्रचना के ज़रिए जनता को पिछड़ी चेतना से ग्रस्त किया , वही विचारधारा आज इसे देश की संस्कृति, भाषा, धार्मिक संप्रदायों के समरूपीकरण में लगी हुई है।

लेखिका अपर्णा ने कहा कि सामाजिक चेतना का विकास मिथक, परम्परा और विज्ञान तीनों से होता है. लेकिन उनका इस्तेमाल उस वर्गीय आधार पर सोचने विचारने वाला अपने तरीके से करता है। विज्ञान ने यह साबित किया है कि मनुष्य किसी जाति,धर्म सम्प्रदाय से हो, सदियों की मानव यात्रा के जैविक विकास का एक क्रम है और यह आगे बढ़ता रहेगा। कवयित्री-इतिहासकार सुनीता ने मातृदेवियों पर अपने अध्ययन के सिलसिले में मिथकों के निर्माण और उसके प्रभावों पर बात की। कर्बी आंगलोंग की एक्टिविस्ट प्रतिमा इंजीपी ने कहा कि लोक संस्कृति हम पहाड़ी आदिवासियों की जीवनरेखा है। इसलिए हम इसे किसी कीमत पर बचाएंगे। संचालन लोक संस्कृति के अध्येता एवं शिक्षक मोतीलाल ने किया। स्वागत उद्बोधन लोकरंग सांस्कृतिक समिति के अध्यक्ष सुभाष चंद कुशवाहा ने किया। धन्यवाद ज्ञापन गांव के लोग पत्रिका के संपादक रामजी यादव ने किया। संगोष्ठी के प्रारंभ में आरा से आए गायक राजू रंजन ने भोजपुरी लोकगीत सुनाए।

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