होली की हुड़दंग में कहीं खो गई ‘वो’ होरी

Seema Pal

होली है भाई होली है बुरा न मानो होली है… इन गीतों के साथ नन्हें- मुन्ने हाथों में पिचकारी लेकर घरों से निकल पड़ते और होली के रंगों से सभी को भिगोते। फिर चाहे रास्ते में कोई पड़े कोई भी कोरा नहीं बचता था। उधर, हाथों में अबीर और ग़ुलाल लिए बड़ों की टोली भी नाचते-गाते निकल पड़ती। किसी ने भाभी को रंगा तो कोई बगल वाली शरमाइन को रंग दिया और जाते-जाते कह दिया ‘बुरा न मानो होली है’। मगर शरमाइन तो बुरा मान गई और ले आई बाल्टी भर रंग और उड़ेल दिया मिश्रा जी पर। लाल, पीले, नीले और गुलाबी रंगों में रंगे इन हुरियारों में एक टोली और नजर आ जाती है, जो रंग से ज्यादा नशे में डूबे रहते हैं। दिनभर दारू के नशे में हुड़दंग काटते हैं और शाम होते-होते सड़कों के किनारे अचेत पड़े दिखाई देते हैं।

होली के इस हुड़दंग में अगर कुछ नहीं दिखा तो वो होरी की संस्कृति है। होली के फूहड़पन में होरी कहीं खो गई। पिछले कुछ सालों तक गाँवो में उड़ते अबीर-ग़ुलाल में ढूंढने से होली के रंग दिख जाते थे मगर अब उजड़े चौपाल, घरों के सुने दरवाजे और ओने-कोने में पड़े नशेड़ी ही दिखेंगे। दादा से सुना था, ‘होरी देखेक होय तो गावे जाओ उहाँ देखोय असली होली, इहाँ तो खाली हुड़दंगई होत है।’ दस साल पहले की बात है, सोचा इस होली, फूहड़पन से दूर गांव की होली खेलूंगी।

होली पर एक दिन पहले गांव पहुंची, अगले दिन होलिका दहन था और उसके अगले दिन रंगभरी होली। सुबह जब आंख खुली तो देखा चाची दुआरे गोबर को इकठ्ठा कर उपले बना रही थी। पास गई तो देखा अरे, ये तो छोटी-छोटी सुंदर-सी होलिका बना रही थी। शहरों में कहां देखने को मिलती हैं। फिर क्या था, हाथ में थोड़ा गोबर लिया, पहले तो महक से जी मचलाया, पर गऊ माता का नाम लिया और थोड़ी लंबी और थोड़ी मोटी होलिका बना डाली, पहली बार बनाया था और खुशी भी हो रही थी। शाम को होलिका दहन में इन्ही होलिका को डालकर जलाना है। बेसब्री से इंतजार कर रही थी कि कब शाम हो और होलिका दहन होते देखूं। फिर शाम आई तो दादी ने आवाज दी, जल्दी-जल्दी तैयारी होई जाओ, नये कपड़ा पहिन लो, अब होरी जले वाली हैं। फिर क्या, बस जल्दी से तैयारी हो गई, घर की सब लड़कियां भी सज-धज गई थी। पहली बार देखा था होलिका दहन में भी शादी-बारातों की तरह तैयार होते हैं।
हम सभी होलिका दहन के लिए पहुंचे, जहां सुंदर और बड़ी सी होलिका तैयार थी। हम ही नहीं, गांव के सभी लोग पहले से होलिका के चारों तरफ मौजूद थे। पंडित जी ने पारंपरिक तरीके से मंत्रों का उच्चारण किया और होलिका दहन कर दिया। सूखी लकड़ियों में आग धूं-धूं कर पकड़ ली। इसके बाद हम सभी ने अक्षत और फूलों से होलिका की पूजा की। फिर उसमें गोबर से बनाई होलिका डाल दी। सभी लोग होलिका के चारों ओर फेरे लगाकर घूमने लगे। यह सब देखकर अच्छा लग रहा था। मानो पहली बार होली देखी हो। अभी होली का असली मजा तो बाकी था, क्योंकि अगले दिन रंगों की होली थी। होलिका दहन के बाद थकान काफी हो गई थी और थक कर सो गई।

सुबह जब उठी तो रसोई में गुझिया बनने की महक आ रही थी। जाकर देखा तो गरम तेल में गुझिया तल रही थी, बगल में पापड़ भी तले रखे थे। बाहर निकली तो देखा बच्चे तो हाथों में पिचकारी लेकर रंगने को घूम रहे थे और बाबा मंदिर में कुछ लोगों के आने का इंतजार कर रहे थे। फिर पास जाकर बाबा को गुलाल की टीका लगाया और मैंने पूछ ही लिया कि कौन आ रहा है? बाबा ने कहा, ई गांव की होरी है, द्याखो, अबहीं आईहैं, भागु लैयके। ढोल-मंजीरा बाजी, भाग गाई जाई फिर अबीर-गुलाल उड़ी।
थोड़ी देर बाद भाग वाले भी आ गए। रंग-बिरंगे रंगों से पुते हुए भगुआ की मंडली में क्या बड़े और क्या बच्चे सभी सराबोर थे। मंदिर पर बाबा ने बिछौना पहले से तैयार कर रखा था। खाने-पीने के लिए पारंपरिक भोग रखे थे। चाची जो गुझिया, पापड़ और लड्डी बनाई थी, सब वहीं खिसक आई थी। कुछ ही देर में ढोलक की तान चढ़ गई और भगुआ गीतों की धुन सब डूब गए। इधर, ढोलक की तान तो उधर गुलाल-अबीर भी उड़ने लगा। देखते ही देखते द्वार पूरा रंग से भर गया। छोटे चाचा भी बड़ी चाची को रंग लगाने दौड़े तो चाची घर में घुस गई, खाली टीका ही लग पाया था, चाची तो पूरी कोरी ही थी। नन्हें-मुन्हों की टोली ने मुझे भी रंग दिया। गालों में गुलाल लगाकर खुश हो रहे थे, मैं भी रंग में मग्न हो रही थी। छोटे बड़ों को रंग लगाकर पैर छूकर आशीर्वाद ले रहें थे।

होली तो पहले खूब खेली लेकिन होली की खुशी मानो पहली बार हो रही थी। शायद यही है पारंपरिक होली। जहां होली पर्व की संस्कृति झलकती है।

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