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Seema Pal
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक मामले में सुनवाई के दौरान कहा कि गवाही के लिए कोई उम्र सीमा नही है। जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर विवाद छिड़ गया है। दरअसल, कानून के तहत किसी भी नाबालिग की गवाही के आधार पर कोर्ट में फैसला सुनाने पर पाबंदी है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने एक बच्ची की गवाही को साक्ष्य मानते हुए अपराधी को दंडित किया, जिसपर विवाद चल रहा है। कोर्ट का कहना है कि मौके वारदात में अगर नाबालिग बच्चा मौजूद है और वह घटना का इकलौता गवाह है तो उसकी गवाही ली जा सकती है। कोर्ट ने यह भी कहा कि गवाही के लिए उम्र की कोई सीमा नही है।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय बहुत ही महत्वपूर्ण और संवेदनशील है। खासकर जब हम बच्चों की गवाही की बात करते हैं। इस निर्णय का उद्देश्य न्याय के प्रति संवेदनशीलता और समावेशिता को बढ़ावा देना है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी व्यक्तियों, चाहे उनकी उम्र कुछ भी हो, को न्याय प्रक्रिया में समान अवसर मिलें।
क्या कहता है कानून
भारत में न्यायपालिका का उद्देश्य निष्पक्ष और पारदर्शी न्याय प्रदान करना है, और इसके लिए यह जरूरी है कि सभी गवाहों की गवाही को उचित तरीके से सुना जाए और उनका मूल्यांकन किया जाए। गवाही, विशेष रूप से जब वह किसी अपराध या घटना के बारे में हो, तो उसका महत्व बेहद अधिक होता है। परंपरागत रूप से, गवाहों की विश्वसनीयता का मूल्यांकन उनके अनुभव, समझ और मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है। इसी कारण से कुछ मामलों में यह माना जाता था कि बच्चों की गवाही को उतना महत्व नहीं दिया जाता क्योंकि उन्हें पूरी तरह से समझ नहीं होती या वे प्रभावित हो सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा- गवाही के उम्र कोई बाधा नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ किया कि गवाही के लिए उम्र की कोई सीमा नहीं होनी चाहिए। इसका मतलब यह है कि यदि बच्चा अपनी गवाही देने के लिए सक्षम है, तो उसकी गवाही को भी स्वीकार किया जा सकता है। कोर्ट ने इस पर जोर दिया कि गवाही की सत्यता और विश्वसनीयता का मूल्यांकन गवाह की उम्र के बजाय उसकी मानसिक स्थिति और गवाही देने की क्षमता के आधार पर किया जाना चाहिए।
इस निर्णय का आधार यह है कि सभी व्यक्तियों, जिनमें बच्चे भी शामिल हैं, के पास न्यायिक प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार है, यदि वे इसे समझ और सही तरीके से प्रस्तुत कर सकते हैं। बच्चों को अक्सर नज़रअंदाज़ किया जाता है, लेकिन वे भी घटनाओं और अपराधों को देख सकते हैं और उनका अनुभव कर सकते हैं। बच्चों की गवाही से न्याय में सच्चाई सामने आ सकती है, विशेषकर उन मामलों में जहां अन्य गवाहों की गवाही नहीं हो सकती या अन्य परिस्थितियाँ प्रत्यक्ष गवाही के लिए मना कर देती हैं।
जहां तक बच्चों की गवाही का सवाल है, यह निश्चित रूप से एक संवेदनशील मुद्दा है। बच्चे अपने अनुभवों को अलग तरीके से व्यक्त कर सकते हैं, और कभी-कभी वे भ्रमित हो सकते हैं या गवाही देने में प्रभावित हो सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस तथ्य को स्वीकार किया कि बच्चों की गवाही को पर्याप्त सावधानी से जांचना जरूरी है। अदालत इस बात की जांच करती है कि बच्चा गवाही देने के लिए मानसिक रूप से तैयार है और क्या उसे पूरी तरह से समझाया गया है कि वह जो कह रहा है, वह सच्चा होना चाहिए।
कोर्ट में कैसे ली जाती है बच्चों की गवाही
बच्चों की गवाही के मामले में, न्यायालय यह सुनिश्चित करता है कि बच्चा शारीरिक या मानसिक दबाव में नहीं हो, और वह अपने बयान को स्वतंत्र रूप से दे रहा हो। यह जरूरी है कि गवाही को विशेष तरीके से दर्ज किया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि बच्चा डर या दबाव के बिना अपनी बात कह सके।
इस फैसले से बच्चों के अधिकारों का संरक्षण होता है। बच्चों को न्यायिक प्रक्रिया में शामिल होने का अधिकार दिया गया है, और यह सुनिश्चित किया गया है कि उनकी गवाही को नजरअंदाज नहीं किया जाएगा, यदि वह विश्वासनीय और सचाई पर आधारित हो।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय यह सुनिश्चित करता है कि गवाही देने का अधिकार सभी को समान रूप से मिले। चाहे वह बच्चा हो या वयस्क, यदि वह गवाही देने में सक्षम है तो उसकी गवाही को गंभीरता से लिया जाएगा।
यह निर्णय कानूनी प्रक्रिया में बदलाव की ओर संकेत करता है, जिसमें बच्चों के मामले में विशेष ध्यान दिया जाता है। यह क़ानूनी प्रणाली के लिए एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, जिसमें बच्चों के विचारों और गवाही को समान महत्व दिया जाता है।
सु्प्रीम कोर्ट ने समाज को दिया संदेश
यह समाज को यह संदेश देता है कि बच्चों को अपनी आवाज़ उठाने का अधिकार है और उनकी गवाही को भी महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए। इसके जरिए समाज में बच्चों के प्रति समझ और संवेदनशीलता को बढ़ावा मिलता है।