
आज 26 फरवरी 1966 के दिन स्वतंत्रता सेनानी विनायक दामोदर सावरकर का निधन हुआ था, उनका जन्म 1883 में नासिक के भागपुर गाँव में हुआ था, विनायक दामोदर के पिता का नाम दामोदरपंत सावरकर और माता राधाबाई था । उन्होंने कम उम्र में ही अपने माता-पिता को खो दिया था। वह अपने बड़े भाई गणेश (बाबाराव) से काफी प्रभावित थे।बताते चलें की विनायक दामोदर सावरकर एक वकील और राजनीतिज्ञ भी थे।
विनायक दामोदर सावरकर की शिक्षा
विनायक दामोदर ने फर्ग्यूसन कॉलेज, पुणे, महाराष्ट्र से बैचलर ऑफ आर्ट्स की पढ़ाई पूरी की। और द ऑनरेबल सोसाइटी ऑफ़ ग्रेज़ इन, लंदन में बैरिस्टर के रूप में कार्यरत थे। उन्हें इंग्लैंड में लॉ की पढ़ाई करने का प्रस्ताव मिला और उन्हें स्कॉलरशिप की पेशकश भी की गई। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने उन्हें इंग्लैंड भेजने और अपनी पढ़ाई को आगे बढ़ाने में मदद की। उन्होंने वहां ‘ग्रेज इन लॉ कॉलेज’ में दाखिला लिया और ‘इंडिया हाउस’ में शरण ली।
सावरकर की गिरफ़्तारी
ब्रिटिश सरकार ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण वीर सावरकर की ग्रेजुएशन डिग्री वापस ले ली थी। जून 1906 में वे लंदन गए थे, जहां उन्होंने बैरिस्टर बनने की तैयारी शुरू की। लंदन में रहते हुए, सावरकर ने भारतीय छात्रों को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए प्रेरित किया। वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सशस्त्र संघर्ष के पक्षधर थे। 13 मार्च 1910 को उन्हें लंदन में गिरफ्तार कर लिया गया और भारत में मुकदमे के लिए भेजा गया। जब वे जिस जहाज से भारत भेजे जा रहे थे, वह फ्रांस के मार्सिले पहुंचा, तो सावरकर वहां से भाग निकले, लेकिन उन्हें फ्रांसीसी पुलिस ने पकड़ लिया। 24 दिसंबर 1910 को उन्हें अंडमान में कालापानी की सजा दी गई। जेल में रहते हुए, सावरकर ने अनपढ़ कैदियों को शिक्षा देने की कोशिश भी की।
विनायक दामोदर और गाँधी जी
विनायक दामोदर सावरकर और महात्मा गांधी के बीच संबंध भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण और विवादित पहलू हैं। सावरकर को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक प्रमुख क्रांतिकारी और विचारक माना जाता है, जबकि गांधीजी भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के अहिंसक नेता थे। हालांकि, उनके दृष्टिकोण और कार्यशैली में गहरा अंतर था, और इन दोनों के बीच कई मतभेद थे, जिनकी वजह से सावरकर का नाम महात्मा गांधी की हत्या से जुड़ा।
सावरकर का महात्मा गांधी से मतभेद
सावरकर एक क्रांतिकारी थे, जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष को अपनाया था। वे अभिनव भारत और “हिंदू महासभा” जैसे संगठनों से जुड़े रहे और उनका विश्वास था कि भारत को स्वतंत्रता केवल हिंसक संघर्ष से ही मिल सकती है। सावरकर ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र क्रांति की आवश्यकता को बल दिया, जबकि गांधीजी का विश्वास अहिंसा और सत्याग्रह में था। गांधीजी का तरीका सत्य, अहिंसा और असहमति को शांतिपूर्वक निपटाने का था।
इन मतभेदों के कारण सावरकर ने गांधीजी के आंदोलनों और उनके तरीकों की आलोचना की थी। गांधीजी की नीति के प्रति सावरकर का विरोध उनके राजनीतिक विचारों और रणनीतियों में अंतर को दर्शाता था।
गांधीजी की हत्या और सावरकर का नाम
महात्मा गांधी की हत्या 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे द्वारा की गई थी। गोडसे हिंदू महासभा का सदस्य था और उसे लगता था कि गांधीजी मुस्लिमों के पक्ष में अधिक सुलहपूर्ण थे और हिंदू समुदाय के लिए यह खतरनाक था। गोडसे ने गांधीजी को मारने का निर्णय लिया, और उसकी इस कार्रवाई में कई अन्य लोगों का समर्थन था।
सावरकर का नाम इस हत्याकांड में इसलिए जुड़ा क्योंकि गोडसे और उसके साथी हिंदू महासभा से जुड़े थे। आरोप था कि सावरकर ने गोडसे और अन्य क्रांतिकारियों को हथियार मुहैया कराए थे, और वे गांधीजी की हत्या की साजिश का हिस्सा थे। हालांकि, इस मामले में सावरकर पर आरोप लगाए गए, लेकिन अदालत में साक्ष्य की कमी के कारण उन्हें बरी कर दिया गया। 1948 में सावरकर पर मुकदमा चलाया गया, लेकिन उन पर महात्मा गांधी की हत्या के आरोपों को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं मिले, और उन्हें बरी कर दिया गया।
जीवनलाल कपूर आयोग की रिपोर्ट
गांधीजी की हत्या के बाद एक जांच आयोग का गठन किया गया, जिसे जीवनलाल कपूर आयोग कहा गया। इस आयोग ने यह माना कि सावरकर के खिलाफ कुछ परिस्थितिजन्य सबूत थे, जो उनके मामले को संदिग्ध बनाते थे। हालांकि, कानूनी रूप से उन्हें दोषी साबित नहीं किया गया। इस रिपोर्ट के बावजूद, सावरकर को गांधीजी की हत्या से जुड़े आरोपों से मुक्त कर दिया गया था।
सावरकर का राजनीतिक जीवन और काले पानी की सजा
सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने 1909 में गिरफ्तार किया था और उन्हें अंडमान की सेलुलर जेल में काले पानी की सजा दी थी। वहां पर उन्होंने कठिन परिस्थितियों में संघर्ष किया और स्वतंत्रता संग्राम के लिए अपने विचारों को और मजबूत किया। बाद में, सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी और उन्हें रिहा कर दिया गया। उनका यह माफीनामा आज भी एक विवादित मुद्दा है, क्योंकि बहुतों का मानना था कि उन्होंने अपनी स्वतंत्रता के लिए सिद्धांतों का त्याग किया।