गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा था कि ‘यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए…उनको आप सकारात्मक ही पाएंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।’ स्वामी विवेकानन्द के जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में पूरा देश मनाता है। उनका जन्म 12 जनवरी को हुआ था। उनकी जीवन यात्रा से हमें सीख मिलती है कि व्यक्ति की उम्र कितनी भी कम हो, लेकिन वह जीवन में कुछ ऐसा कर सकता है कि सदियों तक उसे भुलाया नहीं जा सकता। उनकी जीवन यात्रा मात्र 39 साल की रहीं। उनकी यात्रा उन युवाओं के लिए नजीर है, जो 39 वर्ष तक समझ नहीं पाते कि उन्हें जीवन में क्या करना है? ऐसी स्थिति से निराकरण के लिए विवेकानन्द ने युवाओं को आह्वान किया कि ‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ।अपने नर जन्म को सफल करो और तब तक नहीं रुको, जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।‘
विवेकानंद केवल संत ही नहीं, वक्ता, विचारक और एक महान देशभक्त थे। उनका सम्बंध राजस्थान से भी जुड़ा हुआ है। खेतड़ी राजा अजीत सिंह स्वामी विवेकानंद के मित्र और शिष्य थे। अजीत सिंह ने उन्हें सच्चिदानंद नाम रखने के स्थान पर विवेकानंद नाम रखने का सुझाव भी दिया था। विवेकानंद अपने जीवनकाल में तीन बार खेतड़ी आए। उनके शिकांगो धर्म सम्मेलन में जाने की व्यवस्था अजीत सिंह ने ही की थी। 1893 में महाराज अजीत सिंह ने स्वामी विवेकानंद के खेतडी में आने पर भव्य समारोह का भी आयोजन किया गया था। उस समारोह में एक नर्तकी का गाने का भी कार्यक्रम रखा गया। इस समारोह से स्वामी विवेकानंद नर्तकी के कार्यक्रम को देखे बिना ही जाने लगे क्योंकि उनका मानना था कि एक संन्यासी वहां रुककर क्या करेंगे? महाराजा अजीत सिंह ने उन्हें वहां रुकने की प्रार्थना की। इस बारे में नर्तकी को पता चला तो उसने सूरदास का लिखा भजन ‘प्रभुजी मेरे अवगुण चित न धरो, प्रभु नाम तिहारो, चाह तो पार करो।’ भजन के बोल सुनने के बाद विवेकानंद के आंखों से आंसुओं की धारा फूट पड़ी और उन्होंने नृतकी को मां कहकर सम्बोधित किया और कहा, आज मुझे महसूस हुआ है कि भक्ति किस स्तर पर की जा सकती है।“
कुछ लोगों का मानना है कि इस घटना के बाद उन्हें सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हुई। उनका मानना था कि यह सब ईश्वर की करनी है।’ इस बात की पृष्टि इससे कर सकते हैं कि अमेरिका के शिकांगो में स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि ‘किसी वेश्या को देखकर घृणा नहीं करें, वो हजारों महिलाओं के सम्मान की रक्षा कर रही हैं, हमें उनसे नफरत नहीं बल्कि उनका सम्मान करना चाहिए।’
1893 में संयुक्त राज्य अमेरिका में आयोजित धर्म सम्मेलन में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया। उन्हें बोलने का 2 मिनट का समय दिया गया। उन्होंने अपने भाषण के प्रारंभ ‘मेरे अमेरिकी बहनों और भाइयों ’ शब्द ने सभी का मन मोह लिया। इसके बाद उन्होंने इंग्लैण्ड और यूरोप के कई “ कई शहरों में हिन्दू दर्शन के सिद्धांतों का प्रचार- प्रसार करते हुए कई निजी और सार्वजनिक व्याख्यानों का आयोजन किया। उनके व्याख्यानों से एक विदेशी महिला इस कदर प्रभावित हुई कि उन्होंने विवेकानंद से शादी का प्रस्ताव तक रख दिया। विदेशी महिला ने यहा तक कहा कि आप मुझसे शादी कर लेंगे तो मुझे आप जैसा योग्य पुत्र प्राप्त होगा। महिला की बात सुनकर एक बार तो विवेकानंद बहुत गंभीर हो गए और समझाते हुए कहा कि मैं तो संन्यासी हूं, शादी नहीं कर सकता। लेकिन मैं आपकी मेरे जैसे पुत्र होने की अभिलाषा को पूरी कर सकता हूं। महिला ने तत्परता से कहा कि कैसे? विवेकानंद ने कहा कि आप मेरी मां बन जाएं, आपको मेरे जैसा पुत्र भी मिल जाएगा। यह बात सुनकर महिला उनके चरणों में गिरकर कहने लगी आप ईश्वर के समान हैं, जो किसी भी परिस्थितियों में अपने धर्म के मार्ग से विचलित नहीं होते हैं। उन्होंने हर परिस्थितियों में भी नारी का सम्मान करने से भी पीछे नहीं हटे।
वे 25 साल की उम्र में संन्यासी बन गए थे। उस समय भारत में ब्रिटेन की हुकूमत की थी। अंग्रेजों का शासन था। वे सशस्त्र क्रांति के माध्यम से देश को आजादी दिलाना चाहते थे, लेकिन उन्होंने पाया कि अभी जनता में इन इरादों के परिपक्वता नहीं है। इसलिए उन्होंने ‘एकला चलो’ की नीति अपनाते हुए देश और दुनिया को खंगाल डाला। उन्होंने पाया कि पराधीनता के कारण भारत के लोगों का आत्म-सम्मान, स्वावलम्बन और आत्म गौरव पूर्णतः समाप्त हो गया है। वे कहा करते थे कि ‘मुझे बहुत से युवा संन्यासी चाहिए, जो भारत के गांवों में फैलकर देशवासियों की सेवा में खप जाएं। उनका यह सपना सपना ही रह गया। वे रूढ़िवादिता, धार्मिक आडम्बरों, कठमुल्लापन का कड़ा विरोध करते थे। महात्मा गांधी ने स्वामी विवेकानंद के लिए कहा था कि ‘ उनके कार्यों को पढ़ने के बाद मेरा उनके प्रति प्रेम, हजारों गुणा बढ़ गया है।’