दृढ़ संकल्प और नेक नीयत से ही हिंदी बनेगी राष्ट्रभाषा

भारत संभवतः दुनिया का अकेला देश होगा, जिसकी अधिकारिक रूप से कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हम आज एक बड़ी आर्थिक शक्ति हैं, लेकिन राष्ट्रभाषा के मामले में बहुत गरीब हैं। आश्चर्य कि संसद की कार्यवाही के लिए भी अनेक भाषाएं हैं और संविधान की 26वीं अनुसूची में कई क्षेत्रीय भाषाएं भी दर्ज हैं, लेकिन आज भी हमारी राष्ट्रभाषा के रूप में कोई भी भाषा दर्ज नहीं है।

हालांकि यह सच है कि उत्तर भारतवासी भावनात्मक रूप से देवनागरी हिंदी को राष्ट्रभाषा का मान देते हैं, लेकिन संविधान उसे ऐसा कोई दर्जा नहीं देता। हिंदी भी दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं की तरह ही एक भाषा मात्र है, जिसे राज्य व केंद्र सरकारें अपने कामकाज में ला सकती हैं, लेकिन हर आदेश व प्रपत्र में अंतिम स्वीकृति आज भी अंग्रेजी अनुवाद की ही मान्य है।

पाकिस्तान, तुर्की, बहरीन फिजी व मॉरीशस जैसे छोटे छोटे देशों से लेकर ब्रिटेन, अमेरिका, चीन व जर्मनी जैसे बड़े देशों तक सबकी अपनी एक अधिकृत राष्ट्रभाषा है और वहां का हर सरकारी काम उसी में करने की अनिवार्यता है। इतना ही नहीं, संयुक्त राष्ट्र संघ व दूसरे मंचों पर भी उसे अंकित करा रखा है। इसका बड़ा लाभ यह होता है कि वहां अपनी बात अपनी ही भाषा में कह सकते हैं। हालांकि कई बार संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी का प्रयोग हमारे प्रतिनिधि कर चुके हैं, लेकिन राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी वहां आज तक भी अंकित नहीं है।

भारत के कुछ राज्यों में तो हिंदी का जमकर विरोध होता है। पहचान व क्षेत्रीय अस्मिता का बहाना बनाकर वहां हिंदी का विरोध जारी है। ऐसे कई राज्य हैं, जहां का सारा सरकारी काम या तो अंग्रेजी में होता है या वहां की स्थानीय भाषा में। तमिलनाड़ु, आंध्र, तेलंगाना, केरल, कर्नाटक, असम, मिजोरम, त्रिपुरा, मणिपुर, गोवा, महराष्ट्र आदि में हिंदी के विरोध का सहारा लेकर सत्ता हासिल करना आम राजनैतिक खेल है, जो कभी खत्म होता नहीं दिखता है।

अब चूंकि केंद्र सरकार राज्यों की स्वायत्तता की बात कह कर इसमें हस्तक्षेप न करने की नीति का पालन करती है तो इससे दूसरे कुछ राज्यों की महत्वाकांक्षाएं भी बढ़ रही हैं। जैसे पंजाब भी अब चाहता है कि उसे गुरुमुखी में ही काम करना चाहिए, कश्मीर व हिमाचल में भी उर्दू व डोगरी के प्रति जूनून बढ़ रहा है और हिंदी प्रधान माने जाने वाले उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, हरियाणा, राजस्थान में भी सरकारी कामों में अधिकतर पहले अंग्रेजी का प्रयोग होता है, फिर उसका अनुवाद देवनागरी में किया जाता है। कई बार तो यह अनुवाद इतना स्तरहीन व क्लिष्ट होता है कि हास्य का पात्र बन जाता है। अब ऐसी स्थिति में अपने ही देश में हिंदी का उन्नयन व विकास कैसे हो सकता है?

हिंदी का प्रयोग न करने के पीछे कई बार बहुत ही थोथा तर्क दिया जाता है कि हिंदी में कारगर व सरल शब्दावली नहीं है। किसी हद तक यह बात एकदम गलत भी नहीं है, लेकिन यह कहना कि हिंदी एक कमजोर या अक्षम भाषा है, हजम नहीं होता। वास्तविकता तो यह है कि हिंदी जैसी समर्थ भाषाएं बहुत ही कम हैं और जहां तक उसके वैज्ञानिक व व्याकरण सम्मत होने का प्रश्न है तो उसमें तो वह बेजोड़ भाषा है। कम से कम अंग्रेजी से तो इस संदर्भ में वह बहुत आगे है, जिसका न कोई सटीक ध्वनि विज्ञान है, न ही उच्चारण का मानक व अपना वृहद शब्दकोश।

इंग्लैंड वासी अंग्रेजी पर जान देते हैं। अंग्रेजी के हिमायती यूरोपीय देशों ने भी उसका प्रयोग अपनी उन्नति में तो किया है, लेकिन वे अपनी क्षेत्रीय व स्थानीय भाषाएं भी बचाए हुए हैं। आज भी जर्मन, फ्रेंच, डच, बल्गारियन, जापानी, चीनी, कोरियन और नेपाली तक अपनी भाषा में बोलने-लिखने को गर्व के साथ प्राथमिकता देते हैं, लेकिन भारतीय अंग्रेजी में बोल व लिखकर खुद को गौरवान्वित मानते हैं। यही है हिंदी के पिछड़ने की सबसे बड़ी वजह।

केवल महोत्सव तक ही सीमित हो रही हिंदी

हिंदी दिवस मनाना हिंदी एवं महोत्सवों का आयोजित करना बुरा नहीं है, परंतु केवल दिखावे के लिए यह सब करने से हिंदी का भला नहीं होने वाला है। यदि हमें हिंदी को सचमुच राष्ट्रभाषा बनते हुए देखना है तो उसे हमें मन एवं मस्तिष्क दोनों से ही अपनाना एवं समर्थन देना होगा।

यदि दूसरे देश अपनी राष्ट्रभाषा में काम करने को अनिवार्य बना सकते हैं तो फिर हम क्यों नहीं? यदि हिंदी को राष्ट्रभाषा बना दिया जाता है तो जहां देश का गर्व बढ़ेगा, वहीं इससे जिस खतरे की आशंका जताई जा रही है वह भी उसी तरह गायब मिलेगा, जैसे कश्मीर से धारा 370 हटाने पर वहां कुछ भी गलत नहीं हुआ और आज कश्मीर बाकी राज्यों की तरह देश का अभिन्न हिस्सा है। बस आवश्यकता है तो केवल दृढ़ संकल्प और नेक नीयत की।
डॉ. घनश्याम बादल

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