लखीमपुर खीरी। अमीरनगर बाग-बगीचों मे अब नही गूंजते सावन के गीत और न ही पड़ते हैं झूले क्योंकि हरे-भरे बाग बगीचे ही नष्ट होने की कगार पर है। बाग-बगीचों की हवाओं के साथ पत्तों के बीच शोर करते सावन के गीतों की स्वर लहरियां अब कहीं-कहीं ही सुनाई देती है। वास्तव में महिलाओं एवं बच्चों के लिए विशेष महत्व रखने वाले सावन के महीने की मौज मस्तियां अब व्यस्तता के दबाव के चलते फीकी हो चली हैं। महिलाओं के उत्साह और उमंग से जुड़ा हरियाली तीज का त्यौहार भी इसी के चलते अपनी पहचान खोने लगा है और इसके चंद आयोजन आधुनिकता के रंग- ढंग में ढल गए हैं। श्रद्धा उमंग से शुरू होने वाले सावन के महीने की चरम हरियाली तीज पर जाकर होती है ।
किशोरियों युवतियों एवं नव विवाहित महिलाओं के तमाम मान्यताओं और भावनाओं के साथ यह महीना सावन शिव की आराधना के लिए समर्पित होता है। खासतौर पर यह वह मौका माना जाता है जब महिलाओं की भावनाओं का प्यार गीत और पारंपरिक आयोजन के रूप में फूट पड़ता है ।भारतीय संस्कृति की असीम गहराइयो में रचे-बसे सावन के महीने और हरियाली तीज के त्यौहार के तमाम आयोजन अपनी मान्यताओं के कारण ही पिता के घर या मायके की धरोहर है। हिंदू संस्कृति और परंपराओं के सबसे चटकीले रंग के तौर पर पहचान रखने वाला हरियाली तीज का त्यौहार आधुनिकता और पुरातनता के दायरों में विभाजित होने लगा है।
इसे कदाचित बदले जमाने के कारण बढ़ी मांग की विशेषताओं का असर ही माना जाता है कि इस त्योहार ने अब भावनाओं का दामन छोड़ कर दूसरे पारंपरिक आयोजनों की तरह तड़क-भड़क और दिखावे को अपनाना शुरू कर दिया है। सावन के झूले और लोकगीत पुरातनता के सीमित दायरे में सिमट कर रह गए हैं। घर में महिलाओं के निजी आयोजन अपने रूप बदलकर सार्वजनिक और प्रतिस्पर्धी होने लगे है। महिलाओं ने हरियाली तीज को उसके वास्तविक स्वरुप में रखने के बजाय अपनी सुविधा के अनुसार अपना लिया है। यही कारण है कि त्यौहार का असल आनंद इस सब के बीच कहीं गुम हो गया है। सावन के गीतों ने अब महिलाओं की जुबान के बजाए मोबाइल पर लाउडस्पीकर पर आनंद लेने की प्रक्रिया शुरु कर दी है।
सावन के लोकगीत भी बीते जमाने के साथ पीछे छूट गए फिल्मी गाने इन पर ज्यादा हावी हो गए हैं । आबादी के करीब बाहर बगीचे नहीं रहे इसलिए झूले के सभी धुले धुले होने लगे हैं। शिवानी सिंह निवासी अमीर नगर बताती हैं कि पहले गांव के पेड़ पर मोटी रस्सी में झूला डाल कर झूला झूला जाता था और सारे गांव की बहन-बेटियां झूलती थीं। आधुनिकता की चकाचौंध में सावन के झूले भी यादें बन गए हैं। केवल कृष्ण मंदिरों में सावन माह में भगवान को झूला झुलाने की परंपरा जरूर अभी भी निभाई जा रही है।
पिंकी सिंह निवासी अमीर नगर बताती है कि झूलों को याद करने मात्र से गुजरे जमाने के दृश्य आंखों के सामने घूमने लगते हैं। युवतियां पेड़ों पर झूला झूलती थीं। गीत गाती थीं । सखियों के बीच आपस में हंसी- मजाक व ठिठोलियां होती थीं, पर अब यह सब किस्से कहानियां में सिमट गया है। यही कारण है कि मौजूदा समय की युवा पीढ़ी झूलों की महत्ता से अनभिज्ञ है। झूला झूलते वक्त लड़कियां और औरतें लोक गीत कजरी गाती थीं। झूला झूलते वक्त औरतें बड़े ही मनमोहक अंदाज से कजरी सुनाती थीं।
गुड्डी अर्कवंशी निवासी अमीर नगर बताती है कि पहले सावन का महीना आते ही पेड़ों पर झूले पड़ जाते थे। पहला सावन मायके में ही मनाने की परंपरा रही है। ऐसे में बहन-बेटियां ससुराल से मायके बुला ली जाती थीं और हाथों में मेहंदी रचा कर पेड़ों पर झूला डाल कर झूलती थीं। महिलाएं सावनी गीत गाया करती थीं। अब जगह के अभाव में कहीं झूले नहीं डाले जाते।
आरती अर्कवंशी निवासी अमीर नगर बताती है कि पवित्र सावन माह का आगमन तो होता है। किंतु आधुनिकता के चकाचौंध मे अपने साथ झूले नही लाता। इस अनोखी परंपरा के खत्म होने के पीछे कोई एक नहीं, कई कारण हैं। आधुनिक समाज की तेज रोशनी ने बहुत कुछ झुलसा दिया। बीते एकाध दशकों से तो ऐसा प्रतीत होने लगा है कि झूला झूलने की परंपरा मानो धीरे-धीरे खत्म होने को है।